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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः यथाविहितं प्रत्ययः
(२) नीतौ च तयुक्तात् ।७७। प०वि०-नीतौ ७१ च अव्ययपदम्, तयुक्तात् ५।१ ।
स०-तया {अनुकम्पया} युक्त:-तयुक्त:, तस्मात्-तयुक्तात् (तृतीयातत्पुरुषः)।
अनु०-'तिङश्च (५।३।५६) इत्यनुवर्तनीयम्।
अन्वय:-तद्युक्तात् प्रातिपदिकात् तिङश्च यथाविहितं प्रत्ययो नीतौ च।
अर्थ:-तद्युक्तात् अनुकम्पायुक्तात् प्रातिपदिकात् तिङन्ताच्च यथाविहितं प्रत्ययो भवति, नीतौ च गम्यमानायाम् । सामदानदण्डभेदात्मक उपायो नीतिरिति कथ्यते।
उदा०-अनुकम्पिता धाना:-धानका: । हन्त ! ते धानका देवदत्त ! अनुकम्पितास्तिला:-तिलका: । हन्त ते तिलका यज्ञदत्त !।। अनुकम्पित एहि-एहकि। अनुकम्पितोऽद्धि-अद्धकि ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तद्युक्तात्) अनुकम्पा से युक्त प्रातिपदिक से और (तिङ:) तिङन्त से (च) भी यथाविहित प्रत्यय होता है (क/अकच्), (नीतौ) यदि वहां नीति अर्थ की (च) भी प्रतीति हो। साम, दान, दण्ड, भेद आत्मक उपाय नीति कहाता है।
उदा०-हन्त ! ते धानका देवदत्त। हे देवदत्त ! ये धान तेरे लिये हैं। कोई धान-दान की नीति से देवदत्त को अपने पक्ष में करता है। 'हन्त' शब्द यहां अनुकम्पा-अर्थ का द्योतक है। हन्त ! ते तिलका यज्ञदत्त । हे यज्ञदत्त ! ये तिल तेरे लिये हैं कोई यज्ञदत्त को तिल-दान की नीति से अपना पक्षधर बनाता है। एहि-एहकि देवदत्त ! हे देवदत्त ! आइये। कोई साम-नीति से देवदत्त को अनुकम्पापूर्वक बुलाता है। अद्धि-अद्धकि यज्ञदत्त! हे यज्ञदत्त ! भोजन कीजिये। कोई साम-नीति से यज्ञदत्त को अनुकम्पापूर्वक भोजन के लिये निमन्त्रित करता है।
सिद्धि-(१) धानका: । धान+जस्+क। धान+क। धानक+जस् । धानकाः ।
यहां अनुकम्पा अर्थ से युक्त 'धान' शब्द से नीति-अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से यथाविहित 'क' प्रत्यय है। ऐसे ही-तिलकाः ।
(२) एहकि । एहि । एह अकच्+इ। एह+अक्+इ। एहकि।
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