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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
यहां अनुकम्पा - अर्थ से युक्त, तिङन्त 'एहि' शब्द से नीति अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से यथाविहित ‘अकच्' प्रत्यय है। 'एहि' पद में आङ् उपसर्ग पूर्वक 'इण् गतौँ' (अदा०प०) धातु से लोट् लकार मध्यमपुरुष एकवचन है। ऐसे ही 'अद भक्षणे' (अदा०प०) धातु से 'अद्धि' और उससे 'अकच्' प्रत्यय करने पर - अद्धकि ।
ठच् विकल्पः
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(३) बह्वचो मनुष्यनाम्नष्ठज् वा ।७८ ।
प०वि० - बह्वच: ५ ।१ मनुष्यनाम्नः ५ ।१ ठच् १।१ वा अव्ययपदम्। स०-बहवोऽचो यस्मिन् स बह्वच्, तस्मात्-बह्वच: ( बहुव्रीहि: ) । मनुष्यस्य नाम-मनुष्यनाम, तस्मात् - मनुष्यनाम्नः (षष्ठीतत्पुरुष: ) । अनु० - नीतौ तद्युक्ताद् इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - तद्युक्ताद् बह्वचो मनुष्यनाम्नो वा ठच् नीतौ । अर्थ:-तद्युक्तात्=अनुकम्पायुक्ताद् बह्वचो मनुष्यनामवाचिनः प्रातिपदिकाद् विकल्पेन ठच् प्रत्ययो भवति, नीतौ गम्यमानायाम् ।
उदा० - अनुकम्पितो देवदत्त:- देविकः ( ठच्) । देवदत्तकः (क: ) । अनुकम्पितो यज्ञदत्त:- यज्ञिकः ( ठच्) । यज्ञदत्तकः (क: ) ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तद्युक्तात्) अनुकम्पा से युक्त (बह्वचः ) बहुत अचोंवाले (मनुष्यनाम्नः) मनुष्यनामवाची प्रातिपदिक से (वा) विकल्प से (ठच् ) ठच् प्रत्यय होता है (नीतौ) यदि वहां साम आदि रूप नीति अर्थ की प्रतीति हो ।
उदा०
० - अनुकम्पित देवदत्त - देविक (उच्) । देवदत्तक ( क)। साम आदि नीति से अनुकम्पा द्वारा अपने अनुकूल किया हुआ देवदत्त । अनुकम्पित यज्ञदत्त - यज्ञिक (ठच्) । यज्ञदत्तक । अर्थ पूर्ववत् है ।
सिद्धि - (१) देविकः । देवदत्त+सु+ठच् । देवदत्त+इक । देव०+इक। देव्+इक। देविक+सु। देविकः ।
यहां अनुकम्पा अर्थ से युक्त, बहुत अचोंवाले, मनुष्यनामवाची देवदत्त' शब्द से इस सूत्र से 'ठच्' प्रत्यय है । 'ठस्येकः' (७ 1३1५०) से 'ठू' के स्थान में 'इक' आदेश होता है | 'ठाजादावूर्ध्वं द्वितीयादच: ' ( ५ / ३ /७८ ) से देवदत्त' शब्द के द्वितीय अच् से ऊर्ध्व विद्यमान 'दत्त' शब्द का लोप होता है । 'यस्येति चं' (६ । ४ । १४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही 'यज्ञदत्त' शब्द से- यज्ञिकः ।
(२) देवदत्तक: । यहां पूर्वोक्त देवदत्त' शब्द से विकल्प पक्ष में यथाविहित 'क' प्रत्यय है। ऐसे ही यज्ञदत्तकः ।
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