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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
यहां अल्प अर्थ में विद्यमान, अव्यय-संज्ञक, ककारान्त धिक्' शब्द से उसके टि-भाग से पूर्व इस सूत्र से 'अकच्' प्रत्यय है और 'धिक्' के ककार को दकार आदेश होता है। 'वाऽवसाने' (८/४/५६ ) से 'द्' को 'चर्' तकार आदेश होता है। ऐसे ही - हिरकुत्, पृथकत् ।
अज्ञातविशिष्टार्थप्रत्ययविधिः
(१) अज्ञाते ॥७३ ।
३३०
यथाविहितं प्रत्ययः
वि०-अज्ञाते ७ ।१ ।
अनु० - 'तिङश्च' (५ | ३ |५६ ) इत्यनुवर्तनीयम् ।
अन्वयः - अज्ञाते प्रातिपदिकात् तिङश्च यथाविहितं प्रत्ययः । अर्थ:- अज्ञातेऽर्थे वर्तमानात् प्रातिपदिकात् तिङन्ताच्च स्वार्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति (कः/अकच्) ।
स्वेन रूपेण ज्ञाते पदार्थे विशेषरूपेण चाज्ञाते प्रत्ययविधानमिदं क्रियते । कस्यायमश्व इति स्वस्वामिसम्बन्धेनाऽज्ञातेऽश्वे प्रत्ययो भवतीत्यर्थः एवं सर्वत्राज्ञतता विज्ञातव्या ।
उदा०-अज्ञातोऽश्वः-अश्वक: । गर्दभकः । उष्ट्रकः । अज्ञातमुच्चै:उच्चकैः । नीचकैः । अज्ञाताः सर्वे सर्वके । विश्वके । अज्ञातं पचति - पचतकि । पठतकि ।
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आर्यभाषाः अर्थ - ( अज्ञाते) अज्ञात अर्थ में विद्यमान प्रातिपदिक से और ( तिङ: ) तिङन्त शब्द से (च ) भी स्वार्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है ( क /अकच्) । स्वरूप से ज्ञात पदार्थ के विषय में विशेष रूप से अज्ञात होने पर यह प्रत्ययविधि की जाती है। यह तो ज्ञात है कि यह एक अश्व है किन्तु यह अज्ञात है कि यह अश्व किसका है, इस अज्ञात अर्थ में यह प्रत्यय होता है। इस प्रकार सर्वत्र 'अज्ञात' शब्द का अभिप्राय समझ लेवें ।
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उदा० - अज्ञात अश्व (घोड़ा)-अश्वक । अज्ञात गर्दभ ( गधा ) - गर्दभक । अज्ञात उष्ट्र (ऊंट) - उष्ट्रक । अज्ञात उच्चैः (ऊंचा) - उच्चकैः । अज्ञात नीचैः (नीचा) - नीचकैः । अज्ञात सर्व (सब) - सर्वके । अज्ञात विश्व ( समस्त ) - विश्वके । अज्ञात पकाता है- पचतकि । अज्ञात पढ़ता है- पठतकि ( पता नहीं कि वह क्या पढ़ता है) ।
सिद्धि- ‘अश्वक:' आदि पदों की सिद्धि अज्ञात अर्थ में पूर्ववत् है ।
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