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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः
३२६ (२) सर्वके । सर्व+जस् । सर्व+अकच्+अ+अस् । सर्व+अक्+अ+शी। सर्वक+ई। सर्वके।
यहां अल्प अर्थ में विद्यमान, सर्वनाम-संज्ञक 'सर्व' शब्द से इस सूत्र से उसके टि-भाग (अ) से पूर्व 'अकच्' प्रत्यय है। 'अकच्' प्रत्यय का द्वितीय अकार उच्चारणार्थ है और चकार चित:' (६।१।१६०) से अन्तोदात्त स्वर के लिये है। जस: शी (७।१।१७) से 'जस्' के स्थान में 'शी' आदेश होता है। ऐसे ही-विश्वके, उभयके।
(३) त्वयका । यहां अल्प अर्थ में विद्यमान, तृतीयान्त, सुबन्त त्वया' शब्द से 'अकच्' प्रत्यय है। ऐसे ही-मयका।
(४) त्वयकि। यहां अल्प अर्थ में विद्यमान, सप्तम्यन्त, सुबन्त त्वयि' शब्द से 'अकच्' प्रत्यय है। ऐसे ही-मयकि।
(५) पचतकि। यहां अल्प अर्थ में विद्यमान, तिङन्त पचति' शब्द से 'अकच्' प्रत्यय है। ऐसे ही-पठतकि।
अकच
(३) कस्य च दः७२। प०वि०-कस्य ६१ (पञ्चम्यर्थे) च अव्ययपदम्, द: १।१ ।
अनु०-अव्ययम्, अकच्, प्राक्, टेरिति चानुवर्तते। सर्वनामेति च नानुवर्तते तस्य ककारान्ताऽभावात् ।
अन्वय:-अव्ययात् कात् प्राग-इवात् प्राक् टेरकच्, दश्च ।
अर्थ:-अव्ययसंज्ञकात् ककारान्तात् प्रातिपदिकात् प्रागिवीयेष्वर्थेषु प्राक् टेरकच् प्रत्ययो भवति, दकारश्चान्तादेशो भवति, इत्यधिकारोऽयम् ।
उदा०-अल्पं धिक्-धकित् । अल्पं हिरुक्-हिरकुत् । अल्पं पृथक्पृथकत्।
आर्यभाषा अर्थ-(अव्ययात्) अव्ययसंज्ञक (कस्य) ककारान्त प्रातिपदिक से (प्राग् इवात्) प्राग्-इवीय अर्थों में (ट:) टि-भाग से (प्राक्) पहले (अकच्) अकच् प्रत्यय होता है (च) और (द:) दकार अन्तादेश होता है।
उदा०-अल्प धिक् (धिक्कार)-धकित्। अल्प हिरुक् (समीप)-हिरकुत्। अल्प पृथक् (अलग)-पृथकत्।
सिद्धि-धकित् । धिक्+सु। ध्+अकच्+इक्+०। ध्+अक्+इद्+०। धकिद् । धकित्।
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