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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषाः अर्थ- ( प्रशस्यस्य) प्रशस्य शब्द के स्थान में (श्रः) श्र आदेश होता है (अजादी) अजादि = इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर ।
३१८.
उदा०- ये सब प्रशस्य = प्रशंसनीय हैं, यह इनमें अतिशय प्रशस्य है-श्रेष्ठ है (इष्ठन्) । ये दोनों प्रशस्य हैं, यह इन दोनों में अतिशय प्रशस्य है- श्रेयान् है ।
सिद्धि - (१) श्रेष्ठः । प्रशस्य + सु + इष्ठन् । श्र+इष्ठ। श्रेष्ठ+सु। श्रेष्ठः ।
यहां अतिशायन अर्थ में विद्यमान 'प्रशस्य' शब्द से अजादि 'इष्ठन्' प्रत्यय करने पर इस सूत्र से 'प्रशस्य' के स्थान में 'श्र' आदेश होता है। 'श्र' शब्द के एकाच् होने से 'प्रकृत्यैकाच्' (६ । ४ ।१६३) से प्रकृतिभाव होता है अर्थात् 'तुरिष्ठेमेयस्तु' (६ । ४ । १५४) की अनुवृत्ति में टे:' (६ । ४ । १५५) से प्राप्त अंग के टि-भाग (अ) का तथा यस्येति च' (६।४।१४८) से प्राप्त अंग के अकार का लोप नहीं होता है । अत: 'आद्गुण:' ( ६ /१/८६ ) से गुणरूप एकादेश होता है ।
(२) श्रेयान् । यहां पूर्वोक्त 'प्रशस्य' शब्द से अजादि 'ईयसुन्' प्रत्यय करने पर 'प्रशस्य' के स्थान में '' आदेश होता है। प्रकृतिभाव आदि कार्य पूर्ववत् है । शेष कार्य 'घटीयान्' (५1३1५७ ) के समान है।
ज्य-आदेश:
(७) ज्य च । ६१ । प०वि०-ज्य १।१ (सु-लुक्) च अव्ययपदम् । अनु० - अजादी, प्रशस्यस्य इति चानुवर्तते । अन्वयः-प्रशस्यस्य ज्योऽजाद्यो: ( इष्ठन् - ईयसुनोः ) ।
अर्थ:- प्रशस्यशब्दस्य स्थाने ज्य आदेशश्च भवति, अजाद्यो: =. इष्ठन् - ईयसुनोः प्रत्यययोः परतः ।
उदा०- सर्वे इमे प्रशस्याः, अयमेषामतिशयेन प्रशस्य:- ज्येष्ठः ( इष्ठन् ) । उभाविमौ प्रशस्यौ, अयमनयोरतिशयेन प्रशस्य:- ज्यायान् ( ईयसुन्) ।
आर्यभाषाः अर्थ- ( प्रशस्यस्य) प्रशस्य शब्द के स्थान में (ज्यः) ज्य आदेश (च) भी होता है (अजादी) अजादि इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर ।
उदा०- ये सब प्रशस्य - प्रशंसनीय हैं. यह इनमें अतिशय से प्रशस्य है- ज्येष्ठ है (इष्ठन्) । ये दोनों प्रशस्य हैं, यह इन दोनों में अतिशय से प्रशस्य है- ज्यायान् है ( ईयसुन्) ।
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