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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः
३१७ उदा०-सर्वे इमे कर्तारः, अयमेषामतिशयेन कर्ता-करिष्ठ: (तृन्) । 'आसुतिं करिष्ठ:' (ऋ० ७।९७७)। द्वे इमे द्रोग्घ्यौ, इयमनयोरतिशयेन द्रोग्ध्री-दोहीयसी । दोहीयसी धेनुः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तुः) तृ-अन्त प्रातिपदिक से भी (अजादी) अजादि इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-ये सब कर्ता हैं, यह इनमें अतिशय कर्ता है-करिष्ठ है (तृन्) । आसुतिं करिष्ठः' (ऋ० ७ १९७१७) ये दोनों द्रोग्धी दुधारू गौवें हैं, इन दोनों में यह अतिशय दोग्ध्री गौ है-दोहीयसी है। दोहीयसी धेनुः ।
सिद्धि-(१) करिष्ठः । कर्तृ+सु+इष्ठन्। कर+इष्ठ। करिष्ठ+सु । करिष्ठः।
यहां अतिशायन अर्थ में विद्यमान, तृन्-अन्त कर्तृ' शब्द से छन्द विषय में इस सूत्र से अजादि 'इष्ठन्' प्रत्यय है। तुरिष्ठेमेयस्सु' (६।४।१५४) से कर्तृ' के तृ' भाग का लोप होता है।
(२) दोहीयसी। दोग्ध्री+सु+ईयसु। दोह+ईयस् । दोहीयस्+ङीप् । दोहीयसी+सु। दोहीयसी।
यहां अतिशायन अर्थ में विद्यमान, तृच्-अन्त 'दोग्ध्री' शब्द से छन्द विषय में इस सूत्र से अजादि ईयसुन्' प्रत्यय है। वा० भस्याढे तद्धिते (६।३।३५) से पुंवद्भाव करने पर तुरिष्ठेमेयस्सु (६।४।१५४) से तृच्’ के तृ' का लोप हो जाता है। तृ' शब्द के लोप हो जाने पर निमित्त के अभाव से नैमित्तिक घत्व आदि भी निवृत्त हो जाता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में उगितश्च' (४।१।६) से डीप् प्रत्यय होता है। श्र-आदेश:
(६) प्रशस्यस्य श्रः।६०। प०वि०-प्रशस्यस्य ६।१ श्रः १।१। अनु०-अजादी इत्यनुवर्तते। अन्वय:-प्रशस्यस्य श्रोऽजाद्यो: (इष्ठन्-ईयसुनोः) ।
अर्थ:-प्रशस्यशब्दस्य स्थाने श्र आदेशो भवति, अजाद्यो: इष्ठन्ईयसुनो: प्रत्यययो: परत:।
उदा०-सर्वे इमे प्रशस्याः, अयमेषामतिशयेन प्रशस्य:-श्रेष्ठः । उभाविमौ प्रशस्यौ, अयमनयोरतिशयेन प्रशस्य:-श्रेयान् । अयमस्मात् श्रेयान्।
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