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________________ ३१४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-सर्वे इमे पचन्ति-अयमेषामतिशयेन पचति-पचतितमाम् । पठतितमाम् । आर्यभाषा अर्थ-(अतिशायने) प्रकर्ष अर्थ में विद्यमान (तिङ:) तिङन्त शब्द से (च) भी स्वार्थ में (तमप्) तमप् प्रत्यय होता है। यहां तमबिष्ठनौ' पद में से तमप्' की ही अनुवृत्ति की जाती है, इष्ठन् की नहीं क्योंकि 'अजादी गुणवचनादेव' (५।३।५८) से इष्ठन् प्रत्यय गुणवाची शब्द से ही होता है, तिङन्त पद गुणवाची नहीं है। उदा०-ये सब पकाते हैं-यह इनमें अतिशय से पकाता है-पचतितमाम्। ये सब पढ़ते हैं-यह इनमें अतिशय से पढ़ता है-पठतितमाम् । सिद्धि-पचतितमाम् । पचति+तमप् । पचति+तम। पचतितम+आमु । पचतितम+आम्। पचतितमाम्+सु। पचतितमाम्। यहां अतिशायन अर्थ में विद्यमान तिङन्त पचति' शब्द से स्वार्थ में इस सूत्र से 'तमप्' प्रत्यय होता है। तत्पश्चात्- किमेततिडव्ययघादाम्वद्रव्यप्रकर्षे (५।४।११) से 'आमु' प्रत्यय होता है। स्वरादिनिपातमव्ययम् (१।१।३७) से अव्यय संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुप:' (२।४।८२) से 'सु' का लुक् होता है। ऐसे ही-पठतितमाम् । तरप्-ईयसुन् (३) द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ ।५७। प०वि०-द्विवचन-विभज्योपपदे ७।१ तरप्-ईयसुनौ ११ । स०-द्वयोर्वचनम्-द्विवचनम्, विभक्तुं योग्यम्-विभज्यम् । द्विवचनं च विभज्यं च एतयो: समाहारो द्विवचनविभज्यम् । द्विवचनविभज्यं च तद् उपपदम्-द्विवचनविभज्योपपदम्, तस्मिन्-द्विवचनविभज्योपपदे (षष्ठीतत्पुरुषसमाहारद्वन्द्वगर्भितकर्मधारयः)। अनु०-अतिशायने, तिङ इति चानुवर्तते । अन्वय:-द्विवचनविभज्योपपदेऽतिशायने प्रातिपदिकात् तिङश्च तरबीयसुनौ। अर्थ:-द्विवचने विभज्ये चोपपदेऽतिशायने चार्थे वर्तमानात् प्रातिपदिकात् तिङन्ताच्च स्वार्थे तरबीयसुनौ प्रत्ययौ भवतः। उदा०-(द्विवचने प्रातिपदिकात्) द्वाविमावाढ्यौ-अयमनयोरतिशयेनाऽऽदय:-आढ्यतरः। सुकुमारतर: (तरप्)। (द्विवचने तिङन्तात्) द्वामिमौ पचत:-अयमनयोरतिशयेन पचति- पचतितराम्। पठतितराम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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