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________________ पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः ___३१५ (तरप्)। (द्विवचने प्रातिपदिकात्) द्वाविमौ पटू-अयमनयोरतिशयेन पटुः-पटीयान् । लघीयान् (ईयसुन्)। (द्विवचने तिङन्तात्) अत्र ईयसुन् प्रत्ययो न सम्भवति, गुणवचनाभावात्। (विभज्योपपदे) माथुरा: पाटलिपुत्रकेभ्य आढयतरा: । दर्शनीयतरा: (तरप्) । पटीयांस: । लघीयांस: (ईयसुन्)। आर्यभाषा: अर्थ-(द्विवचनविभज्योपपदे) द्विवचन और विभज्य शब्द उपपद होने पर (अतिशायने) प्रकर्ष अर्थ में विद्यमान प्रातिपदिक से तथा (तिङ:) तिङन्त शब्द से भी (तरबीयसुनौ) तरप् और ईयसुन् प्रत्यय होते हैं। उदा०-(द्विवचन प्रातिपदिक) ये दोनों आढ्य (धनवान्) हैं-यह इन दोनों में अतिशय से आढ्य है-आढ्यतर है। ये दोनों सुकुमार हैं-यह इन दोनों में अतिशय से सुकुमार है-सुकुमारतर है। (द्विवचन तिङन्त)। ये दोनों पकाते हैं-इन दोनों में यह अतिशय से पकाता है-पचतितराम्। ये दोनों पढ़ते हैं-यह दोनों में अतिशय से पढ़ता है-पठतितराम् (तरप)। (द्विवचन प्रातिपदिक) ये दोनों पटु-चत्र हैं-यह इन दोनों में अतिशय पटु है-पटीयान् है। ये दोनों लघु-छोटे हैं-इन दोनों में यह अतिशय से लघु है-लघीयान् है (ईयसुन)। (द्विवचन तिङन्त) यहां ईसुन्' प्रत्यय सम्भव नहीं है क्योंकि तिङन्त पद गुणवाची नहीं होते हैं। (विभज्य-उपपद) मथुरा के लोग पटना के लोगों से आन्यतर' हैं। दर्शनीयतर हैं (तरम्) । पटीयान् हैं। लघीयान् हैं (ईयसुन्)।। सिद्धि-(१) आढ्यतरः। यहां द्विवचन उपपद होने पर अतिशायन अर्थ में विद्यमान आढ्य' शब्द से स्वार्थ में इस सूत्र से तरप्' प्रत्यय है। ऐसे ही-सुकुमारतरः । (२) पचतितराम् । यहां द्विवचन उपपद होने पर अतिशायन अर्थ में विद्यमान, तिङन्त ‘पचति' शब्द से स्वार्थ में इस सूत्र से 'तरम्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् किमेतिङव्ययघादाम्वद्रव्यप्रकर्षे (५।४।११) से ‘आमु' प्रत्यय होता है। (३) पटीयान् । पट+सु+ईयसुन्। पट्+ईयस् । पटीयस्+सु । पटीयनुम्स्+सु । पटीयन्स+सु। पटीयान्स्+० । पटीयान् । पटीयान् । यहां द्विवचन उपपद होने पर, अतिशायन अर्थ में विद्यमान ‘पटु' शब्द से स्वार्थ में इस सूत्र से ईयसुन्' प्रत्यय है। यहां तुरिष्ठेमेयस्सु' (६।४ ११५४) की अनुवृत्ति में टे:' (६।४।१५६) से अंग के टि-भाग (उ) का लोप होता है। 'ईयसुन्' प्रत्यय के उगित् होने से उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' (७ ११ १७०) से नुम्' आगम, 'सान्तमहत: संयोगस्य' (६।४।१०) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ, 'हल्याब्भ्यो दीर्घात्' (६।१।६७) से 'सु' का लोप और संयोगान्तस्य लोपः' (८।२।२३) से संयोगान्त सकार का लोप होता है। ऐसे ही-लघीयान् ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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