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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः आर्यभाषा: अर्थ-(अतिशायने) प्रकर्ष-आधिक्य अर्थ में विद्यमान प्रातिपदिक से स्वार्थ में (तमबिष्ठनौ) तमप् और इष्ठन् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-ये सब आढ्य (धनवान्) हैं-यह इनमें अतिशय प्रकृष्टता से आढ्य है-आढ्यतम है। ये सब दर्शनीय (सुन्दर) हैं-यह इनमें अतिशय से दर्शनीय है-दर्शनीयतम है। ये सब सुकुमार-कोमलशील हैं-यह इनमें अतिशय से सुकुमार है-सुकुमारतम है (तमप्)। ये सब पटु-चतुर हैं-यह इनमें अतिशय से पटु है-पटिष्ठ है। ये सब लघु-छोटे हैं-यह इनमें अतिशय से लघु है-लघिष्ठ है। ये सब गुरु बड़े हैं-यह इनमें अतिशय से गुरु है-गरिष्ठ है।
सिद्धि-(१) आध्यतमः । आढ्य+सु+तमप्। आन्य+तम। आढ्यतम+सु । आढ्यतमः।
यहां अतिशायन अर्थ में विद्यमान आढ्य' शब्द से स्वार्थ में तमप्' प्रत्यय है। ऐसे ही-दर्शनीयतमः, सुकुमारतमः ।
(२) पटिष्ठः । पटु+सु+इष्ठन्। पट्+इष्ठ। पटिष्ठ+सु। पटिष्ठः।
यहां अतिशायन अर्थ में विद्यमान 'पटु' शब्द से स्वार्थ में इस सूत्र से इष्ठन्' प्रत्यय है। यहां तुरिष्ठेमेयस्सु (६।४।१५४) की अनुवृत्ति में टः' (६।४।१५५) से अंग के टि-भाग (उ) का लोप होता है। ऐसे ही-लघिष्ठः ।
(३) गरिष्ठः। यहां 'गुरु' शब्द से पूर्ववत् इष्ठन्' प्रत्यय है। 'प्रियस्थिर०' (६।४।१५७) से 'गुरु' के स्थान में गर्’ आदेश होता है।
विशेष: जब प्रकर्षवानों का पुन: प्रकर्ष विवक्षित होता है तब आतिशायिकान्त प्रातिपदिक से पुन: आतिशायिक प्रत्यय होता है जैसे 'देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे (यजु० ११)। युधिष्ठिरः श्रेष्ठतमः कुरूणाम् । तमप्
(२) तिङश्च।५६। प०वि०-तिङ: ५।१ च अव्ययपदम्।
अनु०-अतिशायने इत्यनुवर्तते। 'तमबिष्ठनौ' इत्येतस्मात् पदाच्च 'तमप् इत्यनुवर्तनीयं न इष्ठन्, सम्बन्धासम्भवात् । 'एकयोगनिर्दिष्टानामप्येकदेशानुवृत्तिर्भवति' (पारिभाषिक १८ अष्टा० ४।१।२७)।
अन्वय:-अतिशायने तिङश्च मतुप् ।
अर्थ:-अतिशायनेऽर्थे वर्तमानात् तिङन्ताच्च स्वार्थे तमप् प्रत्ययो भवति।
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