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________________ पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः २६३ आर्यभाषा: अर्थ-(इदम:) इदम् के स्थान में (इश्) इश् आदेश होता है (प्राग्दिश:) प्राग्-दिशीय (विभक्ति:) विभक्ति-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर। उदा०-इसमें-इह (इस स्थान पर) यहाँ । सिद्धि-इह । इदम्+ह। इश्+ह। इ+ह । इह+सु। इह+० । इह । यहां इदम्' शब्द से 'इदमो हः' (५।३।११) से प्राग्दिशीय, विभक्ति-संज्ञक 'ह' प्रत्यय है। इस सूत्र से इदम्' के स्थान में 'इश्’ आदेश होता है। आदेश के शित्' होने से यह ‘अनेकाल्शित् सर्वस्य' (१।१।५५) से सर्वा देश होता है। 'इह' शब्द की तद्धितश्चासर्वविभक्तिः' (१।१।३८) से अव्यय संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुपः' (२।४।८२) से सु' प्रत्यय का लुक् हो जाता है। एत-इदादेशौ (४) एतेतौ रथोः।४। ___ प०वि०-एतश्च इच्च तौ-एतेतौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। रश्च थ् च तौ रथौ, तयो:-रथो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। रेफेऽकार उच्चारणार्थः । अनु०-प्राक्, दिश:, विभक्तिः , इदम इति चानुवर्तते। अन्वय:-इदम एतेतौ प्राग्दिशीययोर्विभक्त्यो रथोः । अर्थ:-इदम: स्थाने यथासंख्यम् एत-इतावादेशौ भवत: प्रागदिशीये विभक्तिसंज्ञके रेफादौ थकारादौ च प्रत्यये परत:। उदा०- रिफादिः) अस्मिन् काले-एतर्हि । (थकारादि:) अनेन प्रकारेण-इत्थम्। आर्यभाषा: अर्थ-(इदम:) इदम् के स्थान में (एतेतौ) यथासंख्य एत, इत् आदेश होते हैं (प्राग्दिश:) प्राग्दिशीय (विभक्ति:) विभक्ति-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर। उदा०- रिफादि) इस काल में-एतर्हि। (यकारादि) इस प्रकार से-इत्थम् । सिद्धि-(१) एतर्हि । इदम्+हिल् । एत+हि। एतर्हि+सु । एतर्हि । यहां इदम्' शब्द से 'इदमो हिल्' (५ ।३।१६) से रेफादि हिल् प्रत्यय है। इस सूत्र से 'इदम्' के स्थान में ‘एत' आदेश होता है। आदेश के अनेकाल होने से वह 'अनेकाल्शित् सर्वस्य' (१1१।५) से सर्वा देश किया जाता है। पूर्ववत् अव्ययसंज्ञा और सु' का लुक् होता है। (२) इत्थम् । इदम्+थम् । इत्+धम् । इत्थम्+सु । इत्थम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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