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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(द्वन्द्वः) कटकश्च वलयं च ते-कटकवलये। कटकवलये अस्याः, अस्यां वा स्त:-कटकवलयिनी नारी। शङ्खश्च नुपूरं च तेशङ्खनुपूरे। शङ्खनुपूरे अस्याः, अस्यां वा स्त:-शंखनुपूरिणी नारी। (उपताप:) कुष्ठोऽस्य, अस्यां वाऽस्ति-कुष्ठी। किलासोऽस्य, अस्मिन् वाऽस्ति-किलासी। (गद्यम्) ककुदावर्तोऽस्य, अस्मिन् वाऽस्ति-ककुदावर्ती। काकतालुकमस्य, अस्मिन् वाऽस्ति-काकतालुकी।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ (प्राणिस्थात्) प्राणी में अवस्थित (द्वन्द्वोपतापगत्)ि द्वन्द्वसंज्ञक, उपताप रोगविशेषवाची और गर्दा निन्दावाची प्रातिपदिकों से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति और (अस्मिन्निति) सप्तमी-विभक्ति के अर्थ में (इनि:) इनि प्रत्यय होता है (अस्ति) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह 'अस्ति' हो।
उदा०-(द्वन्द्व) कटक और वलय इसके हैं वा इसमें हैं यह-कटकवलयिनी नारी। कटक-कडूला और वलय-कंगण। शङ्ख और नपूर इसके हैं वा इसमें हैं यह-शङ्खनपरिणी नारी। शङ्ख-शंख नामक आभूषण और नुपूर-धुंघरू आभूषण इसके हैं वा इसमें हैं यह-शङ्खनुपूरिणी नारी। (उपताप) कुष्ठ-कोढ़ नामक रोग इसका है वा इसमें है यह-कुष्ठी (कोढ़ी)। किलास-सफेद कोढ़ इसका है वा इसमें है यह-किलासी (सफेद कोढ़वाला)। (ग ) ककुदावर्त नामक दोष इसका है वा इसमें है यह-ककुदावर्ती बैल। ककुदावर्त-थूही का गोल होना । काकतालुक नामक दोष इसका है वा इसमें है यह-काकतालुकी बैल। काकस्थानीय तालु प्रदेश में विद्यमान दोषविशेष ।
सिद्धि-(१) कटकवलयिनी। कटकवलय+सु+इनि। कटकवलय् +इन् । कटकवलयिन्+डीप् । कटकवलयिनी+सु । कटक०वलयी। कटकवलयी।
यहां प्रथमा-समर्थ, द्वन्द्वसंज्ञक कटकवलय' शब्द से अस्य (षष्ठी) वा अस्मिन् (सप्तमी) अर्थ में इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'ऋन्नेभ्यो ङीप्' (४।१।५) से डीप् प्रत्यय है। ऐसे ही-शङ्खनुपूरिणी।
(२) कुष्ठी आदि पदों की सिद्धि तपस्वी (५।२।१०२) के समान है। इनिः (कुक)
(३६) वातातिसराभ्यां कुक् च।१२६ । प०वि०-वात-अतिसाराभ्याम् ५ ।२ कुक् ११ च अव्ययपदम्।
स०-वातश्च अतिसारश्च तौ वातातिसारो, ताभ्याम्-वातातिसाराभ्याम् • (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
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