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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यत् (३) खलयवमाषतिलवृषब्रह्मणश्च।७। प०वि०-खल-यव-माष-तिल-वृष-ब्रह्मण: ५।१ च अव्ययपदम् । स०-खलश्च माषश्च तिलश्च वृषश्च ब्रह्मा च एतेषां समाहार: खलवयमाषतिलवृषब्रह्म, तस्मात्-खलयवमाषतिलवृषब्रह्मणः । अनु०-तस्मै, हितम्, यत् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्मै खल०ब्रह्मणश्च हितं यत् । अर्थ:-तस्मै इति चतुर्थीसमर्थेभ्य: खलादिभ्य: प्रातिपदिकेभ्यश्च हितमित्यस्मिन्नर्थे यत् प्रत्ययो भवति। उदा०-(खल:) खलाय हितम्-खल्यं स्थानम् । (यव:) यवाय हितम्यव्यं क्षेत्रम्। (माष:) माषाय हितम्-माष्यं क्षेत्रम्। (तिल:) तिलाय हितम्-तिल्यं क्षेत्रम् । (वृष:) वृषाय हितम्-वृष्यं शस्यम् । (ब्रह्मा) ब्रह्मणे हितम्-ब्रह्मण्यम् अध्ययनम्। आर्यभाषा: अर्थ-(तस्मै) चतुर्थी-समर्थ (खलब्रह्मण:) खल, यव, माष, तिल, वृष, ब्रह्मन् प्रातिपदिकों से (च) भी (हितम्) हित अर्थ में (यत्) यत् प्रत्यय होता है। उदा०- (खल) खलिहान के लिये हितकारी-खल्य स्थानविशेष। (यव) जौ के लिये हितकारी-यव्य (क्षेत्र)। (माष) उड़द के लिये हितकारी-माष्य (क्षेत्र)। (तिल) तिल के लिये हितकारी-तिल्य (क्षेत्र)। (वृष) बैल के लिये हितकारी-वृष्य शस्य (खेती)। (ब्रह्मा) ब्राह्मण विद्वान् के लिये हितकारी-ब्रह्मण्य वेदाध्ययन। सिद्धि-(१) खल्यम् । खल+डे+यत्। खल+य। खल्य+सु। खल्यम्। यहां चतुर्थी-समर्थ 'खल' शब्द से हित-अर्थ में इस सूत्र से 'यत्' प्रत्यय है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-यव्यम्, माष्यम्, तिल्यम्। (२) वृष्यम् । यहां अकारान्त वृष' शब्द से यत्' प्रत्यय है। यहां अकारान्त वृष' शब्द का ग्रहण किया जाता है, नकारान्त वृषन्' शब्द का नहीं। वहां वाक्यं ही होता है-वृष्णे हितम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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