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________________ पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-वत्सेभ्यो हित:-वत्सीयो गोधुक् । पटव्यम् । गव्यम् । हविष्यम् । अपूप्यम् । अपूपीयम्। ___ आर्यभाषा: अर्थ-(तस्मै) चतुर्थी-समर्थ प्रातिपदिक से (हितम्) हित अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है। उदा०-वत्स-बछड़ों के लिये हितकारी-वत्सीय गोधुक् (गौ का दोग्धा)। पटु-चतुर के लिए हितकारी-पटव्य। गौ के लिये हितकारी-गव्य। हवि के लिये-हविष्य। अपूपों के लिये हितकारी-अपूप्य (यत्) । अपूपीय (छ)। सिद्धि-वत्सीय आदि पदों की सिद्धि पूर्ववत् है। यत् (२) शरीरावयवाद् यत्।६। प०वि०-शरीर-अवयवात् ५।१ यत् ११। सo-शरीरम्=प्राणिकाय: । शरीरस्यावयवम्-शरीरावयवम्, तस्मात्शरीरावयवात् (षष्ठीतत्पुरुषः)। अनु०-तस्मै, हितम् इति चानुवर्तते । अन्वय:-तस्मै शरीरावयवाद् हितं यत् । अर्थ:-तस्मै इति चतुर्थीसमर्थाच्छरीरावयववाचिन: प्रातिपदिकाद् हितमित्यस्मिन्नर्थे यत् प्रत्ययो भवति । उदा०-दन्तेभ्यो हितम्-दन्त्यम् औषधम्। कण्ठ्यम् औषधम् । ओष्ठ्यम् औषधम् । नाभ्यम् आसनम् । नस्यम् औषधम् । आर्यभाषा: अर्थ-(तस्मै) चतुर्थी-समर्थ (शरीरावयवात्) शरीर-अवयववाची प्रातिपदिक से (हितम्) हित-उपकारक अर्थ में (यत्) यत् प्रत्यय होता है। उदा०-दन्तों के लिये हितकारी-दन्त्य औषध । कण्ठ के लिये हितकारी-कण्ठ्य औषध । ओष्ठों के लिये हितकारी-ओष्ठ्य औषध । नाभि के लिये हितकारी-नाभ्य आसन। नसों (नासिका) के लिये हितकारी-नस्य औषध । सिद्धि-दन्त्यम् । दन्त+भ्यस्+यत् । दन्त्+य। दन्त्य+सु। दन्त्यम्। यहां चतुर्थी-समर्थ, शरीर-अवयववाची 'दन्त' शब्द से हित-अर्थ में इस सूत्र से 'यत्' प्रत्यय है। यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-कण्ठ्य: आदि। यह छ' प्रत्यय का अपवाद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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