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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सo-परिपन्थी च परिपरी च तौ-परिपन्थिपरिपरिणौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-इनिरित्यनुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि परिपन्थिपरिपरिणाविनि:, पर्यवस्थातरि।
अर्थ:-छन्दसि विषये परिपन्थिपरिपरिणौ शब्दाविनिप्रत्ययान्तौ निपात्येते, पर्यवस्थातरि वाच्ये। पर्यवस्थाता प्रतिपक्ष: सपत्न: कथ्यते।
उदा०-मा त्वा परिपन्थिनो विदन्, मा त्वा परिपरिणो विदन् (मा०सं० ४।३४)।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (परिपन्थिपरिपरिणौ) परिपन्थी, परिपरी शब्द (इनि:) इनि-प्रत्ययान्त निपातित हैं (पर्यवस्थातरि) यदि वहां पर्यवस्थाता प्रतिपक्षी (शत्रु) अर्थ वाच्य हो।
उदा०-मा त्वा परिपन्थिनो विदन् मा त्वा परिपरिणो विदन (मा०सं० ४।३४)। तुझे परिपन्थी शत्रुओं ने नहीं जाना। तुझे परिपरी शत्रुओं ने नहीं जाना।
सिद्धि-(१) परिपन्थी। परि-अवस्थातृ+सु+इनि। परि-पन्थ+इन्। परिपन्थिन्+सु। परिपन्थीन्+सु। परिपन्थीन्+० । परिपन्थी।
यहां प्रथमा-समर्थ परि-अवस्थातृ' शब्द से इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय और उसके 'अवस्थातृ' अवयव के स्थान में पन्थ-आदेश निपातित है। शेष कार्य श्राद्धी (५।२।८५) के समान है।
(२) परिपरी। परि-अवस्थातृ+सु+इनि। परि+परि+इन्। परिपर+इन् । परिपरिन्+सु। परिपरीन्+सु। परिपरीन्+० । परिपरी।
यहां प्रथमा-समर्थ 'परि-अवस्थात' शब्द से इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय और उसके 'अवस्थातृ' अवयव के स्थान में परि' आदेश निपातित है। शेष कार्य पूर्ववत् है। इनि: (निपातनम्)
(६) अनुपद्यन्वेष्टा।६०। प०वि०-अनुपदी १।१ अन्वेष्टा १।१। अनु०-इनिरित्यनुवर्तते। अन्वय:-अनुपदी इनिरन्वेष्टा।
अर्थ:-अनुपदीति पदम् इनि-प्रत्ययान्तं निपात्यतेऽन्वेष्टा चेत् स भवति।
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