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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-उदर में प्रसित अर्थात् खाने में फंसा हुआ और उससे तृप्त न होनेवाला औदरिक आद्यून (पटू)। सिद्धि - औदरिक: । उदर+ङि+ठक् । औदर्+इक । औदरिक+सु । औदरिकः । यहां सप्तमी-समर्थ 'उदर' शब्द से प्रसित अर्थ में तथा आद्यून अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से 'ठक्' प्रत्यय है। 'ठस्येक' (७1३1५०) से 'ह्' के स्थान में 'इक्' आदेश और 'किति च' (७ 1२1११७) से अंग को आदिवृद्धि और पूर्ववत् अंग के अकार का लोप होता है। परिजातार्थप्रत्ययविधिः १६४ कन् (१) सस्येन परिजातः । ६८ । प०वि० - सस्येन ३ । १ परिजातः १ । १ । अनु० - 'कन्' इत्यनुवर्तते । अत्र 'सस्येन' इति तृतीयानिर्देशात् तृतीयासमर्थविभक्तिर्गृह्यते । अन्वयः - {तन} सस्यात् परिजातः कन् । अर्थ: - {न} तृतीयासमर्थात् सस्यात् प्रातिपदिकात् परिजात इत्यस्मिन्नर्थे कन् प्रत्ययो भवति । सस्यशब्दोऽयं गुणवाची गृह्यते न तु धान्यवाची, अनभिधानात् । परिजात: = सर्वतः सम्बद्ध इत्यर्थः । उदा०-सस्येन परिजात:- सस्यकः शालि: । सस्यकः साधुः । सस्यको मणिः। आकरशुद्ध इत्यर्थः । आर्यभाषा: अर्थ- (तिन) तृतीया - समर्थ (सस्येन) सस्य प्रातिपदिक से (परिजातः) सब ओर से सम्बद्ध अर्थ में (कन्) कन् प्रत्यय होता है। यह 'सस्य' शब्द गुणवाचक है, धान्य - खेती का वाचक नहीं है, अभीष्ट अर्थ का वाचक न होने से / उदा०-सस्य = गुण से परिजात=सब ओर से सम्बद्ध-सस्यक शालि ( चावल ) । सर्वथा दोषरहित चावल । सस्यक मणि । सर्वथा दोषरहित रत्न । आकर-खान से ही शुद्ध निकला हुआ हीरा । सिद्धि-सस्यकः । सस्य+टा+कन् । सस्य+क। सस्यक+सु । सस्यकः । यहां तृतीया-समर्थ 'रास्य' शब्द से परियार अर्थ में सूत्र से कन्' प्रत्यय है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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