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पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः
१६३ आर्यभाषा: अर्थ-(नासिकायाः) नासिका के (नत) झुका हुआ होने अर्थ में विद्यमान (ने:) 'नि' प्रातिपदिक से स्वार्थ में (इनपिटच्) इनच् और पिटच् प्रत्यय होते हैं (च) और उनके सन्नियोग से नि' के स्थान में (चिकचि) यथासंख्य चिक और चि आदेश होता है।
उदा०-नासिका का नत होना-चिकिन (इनच+चिक)। चिपिट (पिटच्+चि)। चिपटी नाक। उस नत (नीचे की ओर होना) के संयोग से नासिका और पुरुष भी तथा कहे जाते हैं। चिकिन नासिका। चिपिट नासिका। चिपटी नाक। चिकिन पुरुष। चिपिट पुरुष। चिपटी नाकवाला नर।
सिद्धि-(१) चिकिनः । नि+सु+इनच् । चिक्+इन। चिकिन+सु। चिकिनः ।
यहां नासिका के नत अर्थ में विद्यमान नि' शब्द से स्वार्थ में इस सूत्र से 'इनच्' प्रत्यय है और नि' के स्थान में चिक' आदेश होता है। 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
(२) चिपिट: । नि+सु+पिटच् । चि+पिट । चिपिट+सु। चिपिटः ।
यहां पूर्वोक्त नि' शब्द से पूर्ववत् पिटच्' प्रत्यय और नि' के स्थान में चि' आदेश होता है।
त्यकन्
(८) उपाधिभ्यां त्यकन्नासन्नारूढयोः ।३४।
प०वि०-उप-अधिभ्याम् ५ !२ त्यकन् ११ आसन्नआरूढयो: ७।२।
स०-उपश्च अधिश्च तो उपाधी, ताभ्याम्-उपाधिभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। आसन्नं च आरूढश्च तौ-आसन्नारूढौ, तयो:-आसन्नारूढयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-संज्ञायाम् इत्यनुवर्तनीयम् । अन्वय:-आसन्नारूढयोरुपाधिभ्यां स्वार्थे त्यकन्, संज्ञायाम् ।
अर्थ:-यथासंख्यम् आसन्नारूढयोरर्थयोर्वर्तमानाभ्याम् उपाधिभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां स्वार्थे त्यकन् प्रत्ययो भवति, संज्ञायां विषये।
उदा०- (उप) पर्वतस्यासन्नम्-उपत्यका । (अधि) पर्वतस्याऽऽरूढम्अधित्यका।
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