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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् विशेष: वे लोग जो लूट-मारकर जीविका चलानेवाले, लगभग जंगली हालत में आर्यावर्त की सीमाओं पर प्राचीनकाल से बसे थे, ऐसे उत्सेधजीवी (शारीर श्रमजीवी) लोग पाणिनि के समय व्रात कहलाते थे। ये विशेष करके भारत के उत्तर-पश्चिम कबाइली इलाकों में थे। ये लोग हिन्दूसमाज की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व्यवस्था से बाहर ही माने जाते थे (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ९०)। खञ् (निपातनम्)
(१) साप्तपदीनं सख्यम् ।२२। प०वि०-साप्तपदीनम् ११ सख्यम् १।१। अनु०-खञ् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-तृतीयासमर्थ साप्तपदीनं खञ्, सख्यम् ।
अर्थ:-तृतीयासमर्थं साप्तपदीनमिति पदं खञ्-प्रत्ययान्तं निपात्यते, सख्यं चेत् तद् भवति।
उदा०-सप्तभि: पदैरवाप्यते-साप्तपदीनं सख्यम्।
आर्यभाषा: अर्थ-तृतीया-समर्थ (साप्तपदीनम्) साप्तपदीन पद (खञ्) खञ् प्रत्ययान्त निपातित है (सख्यम्) यदि वह सख्य=मित्रता अर्थ का वाचक हो।
उदा०-जो सात पदों (कदम) से प्राप्त किया जाता है वह-साप्तपदीन सख्य (मित्रता)।
सिद्धि-साप्तपदीनम् । सप्तपद+भिस्+खञ् । सप्तपद्+ईन । साप्तपदीन+सु। साप्तपदीनम् ।
यहां तृतीया-सर्थ सप्तपद' शब्द से अवाप्यते-अर्थ में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय निपातित है। 'आयनेय०' (७/१२) से 'ख' के स्थान में ईन्' आदेश और अंग को आवृिद्धि होती है।
विशेष: वैदिक विवाह-संस्कार विधि में वर और वधू को ईशान दिशा में सात पद चलने का विधान किया गया है जिसमें सातवां पद सख्य=मित्रता अर्थ का द्योतक है। सप्तपदी के मन्त्र निम्नलिखित हैं१. ओम् इषे एकपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा
नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः ।। २. ओम् ऊर्जे द्विपदी भव० ।। ३. ओं रायस्पोषाय त्रिपदी भव०।। ४. ओं मयोभवाय चतुष्पदी भव० ।।
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