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पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः (२) कौपीनम् । कूपावतार+अम्+खञ् । कूप०+ईन। कौप्+ईन। कौपीन+सु । कौपीनम्।
यहां द्वितीया-समर्थ कूपावतार' शब्द से अर्हति-अर्थ में इस सूत्र से खञ्' प्रत्यय और 'अवतार' उत्तरपद का लोप निपातित है। पूर्ववत् 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
विशेष: जो कूपावतार कुएं में डालने योग्य अर्थात् छुपाने के योर अकार्य (पाप) है वह कौपीन कहाता है। छुपाने के योग्य होने से पुरुषलिग को भी कौपीन कहते हैं। लिङ्ग का आच्छादक साधुओं का वस्त्र-विशेष भी लिङ्ग-संयोग से कौपीन कहाता है।
जीवति-अर्थप्रत्ययविधिः खञ्
(१) वातेन जीवति।२१। प०वि०-वातेन ३१ जीवति क्रियापदम् ।
अनु०-खञ् इत्यनुवर्तते। 'वातेन' इति तृतीयानिर्देशात् तृतीयासमर्थविभक्तिर्गृह्यते।
अन्वय:-तृतीयासमर्थाद् व्रात-शब्दात् प्रातिपदिकाद् जीवतीत्यस्मिन्नर्थे खञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-वातेन जीवति-व्रातीन: पुरुषः ।
नानाजातीया अनियतवृत्तयः शारीरश्रमजीविनः सङ्घा वाता इत्युच्यन्ते । तत्साहचर्यात् तेषां कर्मापि व्रातमिति कथ्यते।
आर्यभाषा: अर्थ-तृतीया-समर्थ (व्रातेन) व्रात प्रातिपदिक से (जीवति) जीता है, अर्थ में (खञ्) खञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-वात शारीरिक श्रम से जो जीविका कमाता है वह-वातीन पुरुष ।
नाना जातिवाले, अनिश्चितवृति (जीविका) वाले, शारीरिक श्रम से जीविका-अर्जन करनेवाले लोगों का संघ 'वात' कहाता है। उनके साहचर्य से उनका कर्म भी बात' कहाता है।
सिद्धि-वातीनः । वात+टा+खञ् । व्रात्+ईन। व्रातीन+सु । व्रातीनः ।
यहां ततीया-सम्रर्थ, वात-कर्मवाची 'वात' शब्द से जीवति अर्थ में इस सूत्र से 'खञ्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश, पूर्ववत् अंग को पर्जन्यवत् आदिवद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
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