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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (अभ्यमित्रात्) अभ्यमित्र प्रातिपदिक से (अलङ्गामी) गमन-सामर्थ्यवाला अर्थ में (छ:) छ (च) और (यत्खौ) यत्, ख प्रत्यय होते हैं।
उदा०-अभ्यमित्र-अमित्र (शत्र) के अभिमुख जाने का सामर्थ्य रखनेवाला-अभ्यमित्रीय (छ)। अभ्यमित्र्य (यत्)। अभ्यमित्रीण (ख)
सिद्धि-(१) अभ्यमित्रीय: । अभ्यमित्र+अम्+छ: । अभ्यमित्र+ईय। अभ्यमित्रीय+सु। अभ्यमित्रीयः।
यहां द्वितीया-समर्थ 'अभ्यमित्र' शब्द से अलंगामी अर्थ में इस सूत्र से 'छ' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७१२) से छ' के स्थान में 'ईय' आदेश और 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
(२) अभ्यमित्रीणः । यहां 'अभ्यमित्र' शब्द से पूर्ववत् यत्' प्रत्यय है।
(३) अभ्यमित्रीणः । यहां अभ्यमित्र' शब्द से पूर्ववत् 'ख' प्रत्यय है। 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है।
विशेष: जो राजा अपने मण्डल में इतना शक्तिशाली होता था कि शत्रु के विरुद्ध चढ़ाई कर सके वह अभ्यमित्रीण, {अभ्यमित्र्य) या अभ्यमित्रीण कहलाता था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ४०३)।
स्वार्थिकप्रत्ययविधिः खञ्
(१) गोष्ठात् खञ् भतपूर्वे ।१८। प०वि०-गोष्ठात् ५।१ खञ् १।१ भूतपूर्वे ७१।
स०-गावस्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति-गोष्ठम् (उपपदतत्पुरुषः)। वा०'घार्थे कविधानं स्थास्नायाव्यधिहनियुध्यर्थम्' (३।३।५८) इति अधिकरणे कारके क: प्रत्ययः । पूर्वं भूत इति भूतपूर्वः (केवलसमास:) 'सुप् सुपा' इति समास:।
अन्वयः-प्रथमासमर्थाद् भूतपूर्वेऽर्थे वर्तमानाद् गोष्ठ-शब्दात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे खञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-भूतपूर्वो गोष्ठ:-गौष्ठीनो देशः।
आर्यभाषा: अर्थ-प्रथमा-समर्थ (भूतपूर्वे) भूतपूर्व अर्थ में विद्यमान (गोष्ठात्) गोष्ठ प्रातिपदिक से स्वार्थ अर्थ में (खञ्) खञ् प्रत्यय होता है।
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