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________________ पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः १५१ उदा०-भूतपूर्व गोष्ठ-गौष्ठीन देश। वह स्थान जहां पहले गौवें बैठती थी। जहां अब गौवें बैठती हैं वह देश 'गोष्ठ' कहाता है। सिद्धि-गोष्ठीन: । गोष्ठ+सु+खञ् । गौष्ठ+ईन । गोष्ठीन्+सु। गौष्ठीनः । __यहां प्रथमा-समर्थ, भूतभूर्व उपाधिमान् गोष्ठ' शब्द से स्वार्थ में इस सूत्र से खञ्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'ख्' के स्थान में ईन्' आदेश होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। विशेष: पशुओं के गोष्ठ-स्थान नये-नये चारे की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटते रहते थे। पाणिनि ने लिखा है कि वह भूमि जहां पहले कभी गोष्ठ रहा हो, पर अब हट गया हो, गौष्ठीन कही जाती थी (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० १४७)। एकाहगमार्थप्रत्ययविधिः खञ् अश्वस्यैकाहगमः ।१६। प०वि०-अश्वस्य ६।१ एकाहगम: १।१। स०-एकं च तद् अहरिति-एकाहः, एकाहेन गम्यते इति एकाहगम: (कर्मधारयगर्भिततृतीयातत्पुरुष:)। ‘कर्तृकरणे कृता बहुलम्' (२।१।३२) इति तृतीयासमास:। अनु०-खञ् इत्यनुवर्तते। अत्र 'अश्वस्य' इति षष्ठीनिर्देशात् षष्ठीसमर्थविभक्तिर्गृह्यते। अन्वय:-षष्ठीसमर्थाद् अश्वाद् एकाहगम: खञ् । अर्थ:-षष्ठीसमर्थाद् अश्व-शब्दात् प्रातिपदिकाद् एकाहगम इत्यस्मिन्नर्थे खञ् प्रत्ययो भवति । उदा०-अश्वस्यैकाहगम:-आश्वनोऽध्वा। आर्यभाषा: अर्थ-षष्ठी-समर्थ (अश्वस्य) अश्व प्रातिपदिक से (एकाहगमः ) एक दिन में तय करने योग्य अर्थ में (खञ्) खञ् प्रत्यय है।। उदा०-अश्व-घोड़े का एक दिन में तय किया जानेवाला-आश्वीन मार्ग। सिद्धि-आश्वीनः । अश्व+डस्+खञ्। आश्व्+ईन। आश्वीन+सु। आश्वीनः । यहां षष्ठी-समर्थ 'अश्व' शब्द से एकाहगम अर्थ में इस सूत्र से खञ्' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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