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________________ . पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः १४१ विशेष: वह रथ जो ऐसा मतबूत बना हो कि अच्छे रास्ते के समान ही ऊबड़-खाबड़ मार्ग में भी ले जाया जा सके वह सर्वपथीन' कहलाता था। वह सारथि जो सब तरह के अर्थात् सीधे और कड़वे जानवरों को हांक सके 'सर्वपत्रीण' कहा जाता था। यह सारथि की सुघड़ाई का वाचक था। (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० १५५)। प्राप्नोति-अर्थप्रत्ययविधि: (१) आप्रपदं प्राप्नोति।। प०वि०-आप्रपदम् अव्ययपदम्, प्राप्नोति क्रियापदम् । स०-प्रपदम् इति पादस्याग्रमुच्यते। आ प्रपदाद् इति-आप्रपदम्। 'आङ् मयार्दाभिविध्यो:' (२।१।१३) इत्यव्ययीभावसमास: । अनु०-तत्, ख इति चानुवर्तते। अन्वय:-तद् आप्रपदं प्राप्नोति ख: । अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थात् आप्रपद-शब्दात् प्रातिपकिात् प्राप्नोतीत्यस्मिन्नर्थे ख: प्रत्ययो भवति। उदा०-आप्रपदं प्राप्नोति-आप्रपीन: पट:। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (आप्रपदम्) आप्रपद प्रातिपदिक से (प्राप्नोति) प्राप्त करता है, अर्थ में (ख:) ख प्रत्यय होता है। __ उदा०-आप्रपद-पैरों के अग्रभाग को प्राप्त करनेवाला-आप्रपदीन पट (वस्त्र)। पैरों के अग्रभाग तक नीचे लटकती हुई पुरुषों की धोती और स्त्रियों की साड़ी। सिद्धि-आप्रपदीन: । आप्रपद+अम्+ख । आप्रपद्+ईन् । आप्रपदीन+स। आप्रपदीन:। यहां द्वितीया-समर्थ 'आप्रपद' शब्द से प्राप्नोति अर्थ में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश और यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। बद्धाद्यर्थप्रत्ययविधिः ख: (१) अनुपदसर्वान्नायानयं बद्धाभक्षयतिनेयेषु ।। प०वि०- अनुपद-सर्वान्न-आयानयम् २१ बद्धा-भक्षयतिनेयेषु ७।३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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