SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् ढक (४) कपिज्ञात्योर्डक् ।१२६। प०वि०-कपि-ज्ञात्यो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे) ढक् १।१। स०-कपिश्च ज्ञातिश्च ते .कपिज्ञाती, ताभ्याम्-कपिज्ञातिभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-तस्य, भाव:, कर्मणि, च इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य कपिज्ञातिभ्यां भावे कर्मणि च ढक् । अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाभ्यां कपिज्ञातिभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां भावे कर्मणि चार्थे ढक् प्रत्ययो भवति, त्वतलौ तु भवत एव। __ उदा०-(कपि:) कपेर्भाव: कर्म वा-कापेयम् (ढक्)। कपित्वम् (त्व:)। कपिता (तल्)। (ज्ञाति:) ज्ञातेर्भाव: कर्म वा-ज्ञातेयम् (ढक्) । ज्ञातित्वम् (त्व:)। ज्ञातिता (तल्)। आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (कपिज्ञात्योः) कपि, ज्ञाति प्रातिपदिकों से (भाव:) भाव (च) और (कर्मणि) कर्म अर्थ में (ढक्) ढक् प्रत्यय होता है, त्व और तल् प्रत्यय तो होते ही हैं। उदा०-(कपि) कपि-वानर का भाव वा-कापेय (ढक्)। कपित्व (त्व)। कपिता (तल)। (ज्ञाति) ज्ञाति-सम्बन्धी का भाव वा कर्म-ज्ञातेय (ढक्)। ज्ञातित्व (त्व)। ज्ञातिता (तल्)। सिद्धि-कापेयम् । कपि+इस+ढक्। काप्+एय। कापेय+सु। कापेयम्। यहां षष्ठी-समर्थ कपि' शब्द से भाव और कर्म अर्थ में इस सूत्र से ढक्' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से 'द्' के स्थान में 'एय्' आदेश होता है। किति च' (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि और पूर्ववत् अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-ज्ञातेयम्। यक् (५) पत्यन्तपुराहितादिभ्यो यक् ।१२७। प०वि०-पत्यन्त-पुरोहितादिभ्य: ५।३ यक् १।१। स०-पतिरन्ते यस्य तत् पत्यन्तम्, पुरोहित आदिर्येषां ते पुरोहितादय:, पत्यन्तं च पुरोहितादयश्च ते पत्यन्तपुरोहितादयः, तेभ्य:-पत्यन्तपुरोहितादिभ्य: (बहुव्रीहिगर्भित इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy