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________________ पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः १२१ उदा०-स्तेनस्य भावः कर्म वा - स्तेयम् (यत्) । स्तेनत्वम् (त्व: ) । स्तेनता (तल्) । आर्यभाषा: अर्थ- (तस्य) षष्ठी- समर्थ (स्तेनात्) स्तेन प्रातिपदिक से (भावः ) भाव (च) और (कर्मण) कर्म अर्थ में (यत्) यत् प्रत्यय होता है (च) और ( नलोपः ) नकार का लोप होता है, त्व और तल् प्रत्यय तो होते ही हैं। उदा० - स्तेन = चौर का भाव वा कर्म- स्तेय (यत्) । स्तेनत्व (त्व)। स्तेनता (तल्) । सिद्धि- (१) स्तेयम् । स्तेन+ङस् +यत् । स्ते+य। स्तेय+सु । स्तेयम् । यहां षष्ठी समर्थ 'स्तेन' शब्द से भाव और कर्म अर्थ में इस सूत्र से यत् प्रत्यय है। यहां यस्येति च' (६ । ४ । १४८) से प्रथम अकार का लोप करके इस सूत्र से न्' का लोप 'पूर्वत्रासिद्धम्' (८।२1१) से अकार का लोप असिद्ध हो जाने से, नहीं होता है अत: यहां आरम्भ-सामर्थ्य से संघात रूप न ( न्+अ) का लोप किया जाता है। (२) कई वैयाकरण यहां योगविभाग से स्तेन' शब्द से 'ष्यञ्' प्रत्यय करके 'स्तैन्य' शब्द भी सिद्ध करते हैं। यः (३) सख्युर्यः । १२५ । प०वि० - सख्युः ५ ।१ यः १ । १ । अनु०-तस्य, भाव:, कर्मणि, च इति चानुवर्तते । अन्वयः-तस्य सख्युभवि कर्मणि च यः । अर्थ :- तस्य इति षष्ठीसमर्थात् सखि - शब्दात् प्रातिपदिकाद् भावे कर्मणि चार्थे यः प्रत्ययो भवति, त्वतलौ तु भवत एव । उदा० - सख्युर्भावः कर्म वा- सख्यम् (यः) । सखित्वम् (त्व: ) । सखिता (तल्) । आर्यभाषाः अर्थ- (तस्य) षष्ठी - समर्थ (सख्युः) सखि प्रातिपदिक से (भाव:) भाव (च) और (कर्मणि) कर्म अर्थ में (यः) य प्रत्यय होता है त्व और तल् प्रत्यय तो होते ही हैं। उदा०-सखा का भाव वा कर्म - सख्य (य) । सखित्व (त्व) । सखिता (तल्) । सिद्धि- सख्यम् । सखि + ङस् +य । सख्+य । सख्य+सु । सख्यम् । यहां षष्ठी - समर्थ 'सखि' शब्द से भाव और कर्म अर्थ में इस सूत्र से 'य' प्रत्यय । 'यस्येति च' (६ । ४ । १४८) से अंग के इकार का लोप होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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