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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
१०५ आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ (प्रकृष्टे) दीर्घ अर्थ में विद्यमान (कालात्) काल प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (ठञ्) ठञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-प्रकृष्ट-दीर्घ है काल इसका यह-कालिक ऋण (कर्जा)। प्रकृष्ट दीर्घ है काल इसका यह-कालिक वैर (दुश्मनी)।
सिद्धि-कालिकम् । काल+सु+ठञ् । काल्+इक । कालिक+सु । कालिकम्।
यहां प्रथमा-समर्थ, प्रकृष्ट अर्थ में विद्यमान, 'काल' शब्द से अस्य (षष्ठी-विभक्ति) अर्थ में इस सूत्र से ठञ् प्रत्यय है। पूर्ववत् 'ह' के स्थान में 'इक्’ आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
प्राग्वतेष्ठ' (५।१।१८) इस ठञ्-प्रत्यय के अधिकार में पुन: ठञ्' प्रत्यय का ग्रहण विस्पष्टता के लिये है। यथाविहितं (ठ)
(६) प्रयोजनम् ।१०८ । प०वि०-प्रयोजनम् १।१।। अनु०-तत्, अस्य, ठञ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत् प्रातिपदिकाद् अस्य यथाविहितं ठञ् प्रयोजनम् ।
अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं ठञ् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं प्रयोजनं चेत् तद् भवति।
उदा०-इन्द्रमह: प्रयोजनमस्य-ऐन्द्रमहिकम् । गाङ्गमहिकम् । बौधरात्रिकम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति अर्थ में (ठञ्) यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है (प्रयोजनम्) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह प्रयोजन-उद्देश्य हो।
उदा०-इन्द्रमह=इन्द्र-उत्सव प्रयोजन है इसका यह-ऐन्द्रमहिक। गङ्गामह= गङ्गा-उत्सव (गङ्गा-स्नान) है इसका यह-गाङ्गमहिक। बोधरात्रि नामक उत्सव है प्रयोजन इसका-बौधरात्रिक।
सिद्धि-ऐन्द्रमहिकम् । इन्द्रमह+सु+ठञ् । ऐन्द्रमह्+इक। ऐन्द्रमहिक+सु। ऐन्द्रमहिकम्।
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