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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
१०१
आर्यभाषाः अर्थ- (तस्मै ) चतुर्थी- समर्थ (योगात्) योग प्रातिपदिक से (प्रभवति) तैयार होता है, अर्थ में (यत्) यत् (च) और (ठञ्) यथाविहित ठञ् प्रत्यय होते हैं। - (यत्) योग = समाधि लगाने के लिये जो तैयार होता है वह योग्य । ( ठञ् ) योग के लिये जो तैयार होता है वह यौगिक ।
उदा०
सिद्धि - (१) योग्य: । योग + ङे+यत् । योग्+य । योग्य+सु । योग्यः ।
यहां चतुर्थी - समर्थ 'योग' शब्द से प्रभवति अर्थ में इस सूत्र से 'यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
(२) यौगिक: । यहां चतुर्थी - समर्थ 'योग' शब्द से प्रभवति अर्थ में 'प्राग्वतेष्ठञ्' (4 1१1१८) से यथाविहित ठञ् प्रत्यय है । पूर्ववत् 'हू' के स्थान में 'इक्' आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है ।
विशेषः महर्षि पतञ्जलि ने योगशास्त्र में योग का यह लक्षण किया है'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ' (१।२) अर्थात् चित्त की प्रमाण आदि वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। योग के परिज्ञान के लिये योगशास्त्र का अध्ययन करें ।
उकञ् -
(३) कर्मण उकञ् । १०२ ।
प०वि० - कर्मण: ५ | १ उकञ् १ । १ । अनु० - तस्मै, प्रभवति इति चानुवर्तते । अन्वयः - तस्मै कर्मणः प्रभवति उकञ् ।
अर्थ:-तस्मै इति चतुर्थीसमर्थात् कर्मन्-शब्दात् प्रातिपदिकात् प्रभवतीत्यस्मिन्नर्थे उकञ् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-कर्मणे प्रभवति-कार्मुकं धनुः । धनुषोऽन्यत्रार्थे प्रत्ययो न भवति, अनभिधानात् = प्रयोगादर्शनात् ।
आर्यभाषाः अर्थः- (तस्मै ) चतुर्थी- समर्थ (कर्मण:) कर्मन् प्रातिपदिक से ( प्रभवति) तैयार रहता है, अर्थ में (उकञ् ) उकञ् प्रत्यय होता है।
उदा०- - कर्म- शत्रुसंहार रूप कर्म के लिये जो तैयार रहता है वह - कार्मुक धनुष । धनुष से अन्यत्र अर्थ में यह प्रत्यय अनभिधान (प्रयोग - अदर्शन) वश नहीं होता है । सिद्धि-कार्मुकम्। कर्मन्+ङे+उकञ् । कार्म्+उक। कार्मुक+सु । कार्मुकम् ।
यहां चतुर्थी- समर्थ 'कर्मन् ' शब्द से प्रभवति- अर्थ में तथा धनु:- अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से उकञ् प्रत्यय है । 'नस्तद्धिते' (६ । ४ । ११४) से अंग के टि-भाग (अन्) का लोप और पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है ।
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