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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) हस्यम् । हस्त+टा+यत् । हस्त्+य। हस्त्य+सु । हस्त्यम्।
यहां तृतीया-समर्थ हस्त' शब्द से दीयते/कार्यम् अर्थ में इस सूत्र से यत् प्रत्यय है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
विशेष: यहां प्रातिपदिक से प्रत्ययविधि के प्रकरण में यथाकथाच' (यथा, कथा, च) इस अनादरवाची अव्यय-समुदाय रूप वाक्य से भी विधान-सामर्थ्य से प्रत्ययविधि होती है।
सम्पादि-अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्ययः (ठञ्)
(१) सम्पादिनि।६८। वि०-सम्पादिनि ७।१। कृवृत्ति:-अवश्यं सम्पद्यते इति सम्पादी, तस्मिन्-सम्पादिनि । अत्र ‘आवश्यकाधर्मण्ययोणिनिः' (३।३।१७०) इति णिनि: प्रत्ययः।
अनु०-तेन, ठञ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तेन प्रातिपदिकात् सम्पादिनि ठञ्।।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् प्रातिपदिकात् सम्पादिनि इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं ठञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-कर्णवेष्टकाभ्यां सम्पादि मुखम्-काविष्टकिकं मुखम् । वस्त्रयुगेण सम्पादि-वास्त्रयुगिकं शरीरम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(तेन) तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से (सम्पादिनि) सम्पन्न (गुणोत्कर्ष) करनेवाला अर्थ में (ठञ्) यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-कर्णविष्टक-कान की दो बालियों से सम्पन्न होनेवाला-कार्णवष्टिक मुख । वस्त्रयुग-धोती-कुर्ता से सम्पन्न होनेवाला-वास्त्रयुगिक शरीर । कविष्टक से मुख और वस्त्रयुग से शरीर विशेषरूप से सुशोभित होता है।
सिद्धि-कार्णवेष्टिकम् । कविष्ट+भ्याम्+ठञ् । काविष्टक्+इक । काणवष्टकिक+सु । काविष्टिकम्।
यहां तृतीया-समर्थ कविष्टक' शब्द से सम्पादी-अर्थ में इस सूत्र से प्राग्वतेष्ठ (५।१।१८) से यथाविहित ठञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ' के स्थान में 'इक' आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-वास्त्रयुगिकम् ।
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