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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
व्युष्ट। नित्य। निष्क्रमण। प्रवेशन। तीर्थ। सम्भ्रम। आस्तरण। संग्राम। संघात। अग्निपद । पीलूमूल । प्रवास। उपसंक्रमण। इति व्युष्टादयः।।
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आर्यभाषाः अर्थ - (तत्र) सप्तमी - समर्थ (व्युष्टादिभ्यः) व्युष्ट आदि प्रातिपदिकों से ( दीयते / कार्यम् ) दिया जाता है / करने योग्य अर्थों में (अण् ) अण् प्रत्यय हेता है । उदा०-1 ( दीयते) व्युष्ट= वर्ष के प्रथम दिन जो दिया जाता है वह - वैयुष्ट । नित्य सब काल में जो दान दिया जाता है वह नैत्य । (कार्य) व्युष्ट = वर्ष के प्रथम दिन जो करने योग्य है वह - वैयुष्ट । नित्य = सब काल में जो करने योग्य है वह - नैत्य (परोपकार) । सिद्धि - (१) वैयुष्टम् । व्युष्ट+डि+अण्। व्युष्ट्+अ वैयुष्ट्+अ। वैयुष्ट+सु ।
वैयुष्टम् ।
यहां सप्तमी - समर्थ 'व्युष्ट' शब्द से दीयते / कार्यम् अर्थों में इस सूत्र 'अण्' प्रत्यय है। 'न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ तु ताभ्यामैच्' (७ 1३1३) से ऐच्' आगम और अंग को वृद्धि का प्रतिषेध होता है ।
(२) नैत्यम् | यहां सप्तमी समर्थ नित्य' शब्द से दीयते / कार्यम् अर्थों में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। 'तद्धितेष्वचामादेः' (७ । २ । ११७ ) से अंग को आदिवृद्धि होती है । विशेषः व्युष्ट-व्युष्ट का सामान्य अर्थ रात्रि का चौथा प्रहर था ( वाराह श्रौतसूत्र ) किन्तु आर्थिक वर्ष के प्रथम दिन का पारिभाषिक नाम 'व्युष्ट' था जो कि आषाढी पौर्णमासी के अगले दिन होता था (अर्थशास्त्र २ । ६ ) । पाणिनि में भी व्युष्ट का यही विशेष अर्थ है। इस दिन के कार्य और देय भुगतानों पर कुछ प्रकाश अर्थशास्त्र से पड़ता है। वहां कहा है कि जितने गणनाध्यक्ष हैं वे आषाढी पूर्णिमा को अपने मोहरबन्द हिसाब-किताब के कागज और रोकड़ लेकर राजधानी में आयें। वहां उन्हें आय, व्यय, रोकड़ का जोड़ बताना पड़ता था और तब उनसे रोकड़ जमा कराई जाती थी। 'तत्र च दीयतें' में जिनकी ओर लक्ष्य है वे ही 'वैयुष्ट' भुगतान ज्ञात होते हैं । राजकीय गणना- विभाग के केन्द्रीय कार्यालय में हिसाब-किताब की जांच-पड़ताल बारीकी से की जाती थी। यही वे 'वैयुष्ट' कार्य थे जिनका 'तत्र च दीयते कार्यम्' में संकेत है। (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० १७९ ) ।
णः+यत्
(३) तेन यथाकथाचहस्ताभ्यां णयतौ । ६७ ।
प०वि०-तेन ३ । १ यथाकथाच - हस्ताभ्याम् ५ | २ ण - यतौ १।२ । स०-यथाकथाश्च हस्तश्च तौ यथाकथाचहस्तौ, ताभ्याम्-यथाकथाचहस्ताभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
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