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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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उदा० - मासोऽस्य ब्रह्मचर्यस्य- मासिकं ब्रह्मचर्यम् । आर्धमासिकं ब्रह्मचर्यम्। सांवत्सरिकं ब्रह्मचर्यम् । आयुष्कं ब्रह्मचर्यम् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तद्) द्वितीया-समर्थ (कालात्) कालविशेषवाची प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठीविभक्ति के अर्थ में (ठञ् ) यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है ( ब्रह्मचर्यम्) जो द्वितीया-समर्थ है यदि वह ब्रह्मचर्य हो ।
उदा०-एक मास तक ब्रह्मचर्य है इसका यह - मासिक ब्रह्मचारी । अर्धमास तक ब्रह्मचर्य है इसका यह अर्धमासिक ब्रह्मचारी । संवत्सर तक ब्रह्मचर्य है इसका यह सांवत्सरिक ब्रह्मचारी | आयु (सम्पूर्ण जीवन काल ) । ब्रह्मचर्य है इसका यह - आयुष्क ब्रह्मचारी ।
द्वितीय अर्थ - (तत्) प्रथमा-समर्थ (कालात्) कालविशेषवाची प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (ठञ् ) यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है ( ब्रह्मचर्यम् ) जो अस्य = (षष्ठी-विभक्ति) अर्थ है यदि वह ब्रह्मचर्य हो ।
उदा०-एक मास है इस ब्रह्मचर्य का यह मासिक ब्रह्मचर्य । अर्धमास है इस ब्रह्मचर्य का यह आर्धमासिक ब्रह्मचर्य । संवत्सर है इस ब्रह्मचर्य का यह - सांवत्सरिक ब्रह्मचर्य | आयु (सम्पूर्ण जीवन काल ) है इस ब्रह्मचर्य का यह - आयुष्क ब्रह्मचर्य ।
सिद्धि-(१) मासिक । मास+अम्/सु+ठञ् । मास+इक। मासिक+सु। मासिकः 1
यहां द्वितीया/ प्रथमा विभक्ति-समर्थ, कालविशेषवाची 'मास' शब्द से अस्य (षष्ठी विभक्ति) अर्थ में तथा ब्रह्मचर्य अभिधेय में 'प्राग्वतेष्ठञ्' (५ 13 1१८ ) से यथाविहित 'ठञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ठू' के स्थान में 'इक्' आदेश, पर्जन्यवत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही- आर्धमासिकः, सांवत्सरिकः ।
आयुष्कः । यहां द्वितीया-समर्थ / प्रथमा-समर्थ, जीवन - कालवाची 'आयुष्' शब्द से पूर्ववत् 'ठञ्' प्रत्यय है । 'इसुसुक्तान्तात् क:' (७ । ३ । ५१) से 'ह्' के स्थान में 'क्' आदेश होता है।
विशेष: इस सूत्र के यहां दो अर्थ दर्शाये गये हैं । पाणिनीय शिष्य-परम्परा में दोनों ही अर्थ प्रामाणिक माने जाते हैं ।
दक्षिणार्थप्रत्ययविधिः
यथाविहितं प्रत्ययः (ठञ् ) -
(१) तस्य च दक्षिणा यज्ञाख्येभ्यः । ६४ । प०वि०-तस्य ६ ।१ दक्षिणा १ ।१ यज्ञाख्येभ्यः ५ । ३ । स०-यज्ञमाचक्षते इति यज्ञाख्या:, तेभ्य: - यज्ञाख्येभ्यः
( उपपदतत्पुरुषः) ।
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