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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
८५ उदा०-(१) रात्रि-दो रात में बनाया गया-द्विरात्रीण द्वार (ख)। द्वै रात्रिक द्वार (ठ)। दो रात तक अधीष्ट, भृत, भूत, भावी-द्विरात्रीण अध्यापक आदि (ख)। द्वैरात्रिक अध्यापक आदि (ठञ्)।
(२) अह:-दो दिन में बनाया गया-द्वयहीन द्वार (ख)। द्वैयनिक द्वार (ठञ्)। दो दिन तक अधीष्ट, भूत, भूत वा भावी-द्वयहीन अध्यापक आदि (ख)। द्वैयह्निक अध्यापक आदि (ठञ्)।
(२) संवत्सर-दो संवत्सर (वर्ष) में बनाया गया-द्विसंवत्सरीण भवन (ख)। द्विसांवत्सरिक भवन (ठञ्)। दो संवत्सर तक अधीष्ट, भृत, भूत वा भावी-द्विसंवत्सरीण अध्यापक आदि (ख)। द्विसांवत्सरिक अध्यापक आदि (ठञ्) ।
सिद्धि-(१) द्विरात्रीणम् । द्विरात्र+टा/अम्+ख। अम्+ख। द्विराज्+ईन् । द्विरात्रीण+सु। द्विरात्रीणम्।
यहां तृतीया/द्वितीया-समर्थ, द्विगुसंज्ञक, कालविशेषवाची, रात्र्यन्त त्रिरात्र' शब्द से निवृत्त आदि पांच अर्थों में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश, 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप और अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है। ऐसे ही-व्यहीनम्, द्विसंवत्सरीणम्।
(२) द्वैयह्निकम् । द्वययन्+टा/अम्+ठञ् । द्वैयहन्+इक। द्वैयह्निक+सु । द्वैयह्निकम्।
यहां तृतीया/द्वितीया विभक्ति-समर्थ, द्विगुसंज्ञक, कालविशेषवाची अहरन्त द्वयहन्' शब्द से निवृत्त आदि पांच अर्थों में विकल्प पक्ष में प्राग्वतेष्ठञ् (५।१।१८) से यथाविहित ठञ्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७।३।५०) से 'ह' के स्थान में 'इक्’ आदेश होता है। न वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वी तु ताभ्यामैच् (७।३ ॥३) से अंग को ऐच्-आगम और वृद्धि का प्रतिषेध होता है। ऐसे ही-द्विरात्रिकम् ।
(३) द्विसांवत्सरिकम् । यहां पूर्वोक्त द्विसंवत्सर' शब्द से निवृत्त आदि पांच अर्थों में विकल्प पक्ष में प्राग्वतेष्ठञ् (५।१।१८) से ठञ्' प्रत्यय है। 'संख्यायाः संवत्सरसंख्यस्य च' (७।३।१५) से उत्तरपद-वृद्धि होती है।
ऐसे ही-त्रिरात्रीणम्, त्रैरात्रिकम् । त्र्यहीणम्, त्रैयह्निकम् । त्रिसंवत्सरीणम्, विसांवत्सरिकम् । ख-विकल्पो लुक् च
(४) वर्षाल्लुक् च।८७। प०वि०-वर्षात् ५।१ लुक् ११ च अव्ययपदम् ।
अनु०-कालात्, तेन, निवृत्तम्, तम्, अधीष्टः, भृत:, भूत:, भावी, ख:, द्विगो:, वा इति चानुवर्तते ।
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