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चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः सिद्धि-(१) रात्री। रात्रि+डी। राज्+ई। रात्री+सु। रात्री।
यहां प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'रात्रि' शब्द से इस सूत्र से डीप्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से रात्रि शब्द के इकार का लोप होता है। डीप् (नुक)
(२८) अन्तर्वत्पतिवतोर्नुक् ।३२। प०वि०-अन्तर्वत्-पतिवतो: ६।२ नुक् १।१ ।
स०-अन्तर्वच्च पतिवच्च तौ-अन्तर्वत्पतिवतौ, तयो:- अन्तर्वत्पतिवतो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-डीप् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अन्तर्वत्पतिवतो: स्त्रियां डीप नुक् च।
अर्थ:-अन्तर्वत्पतिवद्भ्यां प्रातिपदिकाभ्यां स्त्रियां डीप् प्रत्ययो भवति, तयोश्च नुक्-आगमो भवति।
उदा०-(अन्तर्वत्) अन्तर्वत्नी। (पतिवत्) पतिवत्नी।
आर्यभाषा: अर्थ-(अन्तर्वत्पतिवतो:) अन्तर्वत् और पतिवत् प्रातिपदिकों से (स्त्रियाम्) स्त्रीलिङ्ग में (डीप्) डीप् प्रत्यय होता है और उन दोनों को (नुक्) नुक् आगम होता है।
उदा०-(अन्तर्वत्) अन्तर्वत्नी। गर्भिणी। (पतिवत्) पतिवत्नी। जीवितभर्तृका नारी।
सिद्धि-(१) अन्तर्वत्नी। अन्तर्वत्+डीप्। अन्तर्वत्+नुक्+ई। अन्तर्वत्नी+सु। अन्तर्वत्नी।
यहां 'अन्तर्वत्' प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में इस सूत्र से 'डीप्' प्रत्यय और प्रातिपदिक को नुक् आगम होता है।
(२) पतिवत्नी। पूर्ववत् । डीप् (नः)
(२६) पत्यु! यज्ञसंयोगे।३३। प०वि०-पत्यु: ६१ न: ११ यज्ञसंयोगे ७।१।
स०-यज्ञेन संयोग इति यज्ञसंयोगः, तस्मिन्-यज्ञसंयोगे (तृतीयातत्पुरुषः)।
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