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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में प्रथमा-समर्थ (सहस्रेण) सहस्र प्रातिपदिक से (मतौ) मतुप्-प्रत्यय के अर्थ में (घ:) घ प्रत्यय होता है।
उदा०-सहस्र (बहुत) इसके हैं यह-सहस्त्रिय। सिद्धि-सहस्त्रियः । सहस्र+सु+घ। सहस्र+इय। सहस्रिय+सु। सहस्त्रियः ।
यहां प्रथमा-समर्थ 'सहस्र' शब्द से मतुप-प्रत्यय के अर्थ में इस सूत्र से 'घ' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। सहस्र' शब्द से मत्वर्थ में तप:सहस्राभ्यां विनीनी (५।२।१०२) से विनि और इनि प्रत्यय तथा 'अण् च' (५।२।१०३) से 'अण्' प्रत्यय का विधान किया जायेगा। यह उसका छन्दोभाषा में अपवाद है।
अर्हति-अर्थप्रत्ययविधिः यः
(१) सोममर्हति यः ।१३७ । प०वि०-सोमम् २।१ अर्हति क्रियापदम्, य: १।१।
अनु०-छन्दसि इत्यनुवर्तते। अत्र ‘सोमम्' इति द्वितीयानिर्देशाद् द्वितीयासमविभक्तिर्गृह्यते।
अन्वय:-छन्दसि द्वितीयासमर्थात् सोमाद् अर्हति यः ।
अर्थ:-छन्दसि विषये सोम-शब्दात् प्रातिपदिकाद् अर्हतीत्यस्मिन्नर्थे य: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-सोममर्हति-सोम्य: । ‘सोम्या ब्राह्मणा:' (का०सं० ५।२) । सोम्या: यज्ञार्हा इत्यर्थः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में, द्वितीया-समर्थ (सोमम्) सोम प्रातिपदिक से (अर्हति) सकता है अर्थ में (य:) य प्रत्यय होता है।
उदा०-जो सोमपान कर सकता है वह-सोम्य। सोम्या ब्राह्मणा:' (का०सं० ५।२) सोम्य यज्ञ में सोमपान करने योग्य ब्राह्मण (वेदज्ञ विद्वान्)।
सिद्धि-सोम्य: । सोम+अम्+य । सोम्+य। सोम्य+सु। सोम्यः ।
यहां द्वितीया-समर्थ सोम' शब्द से अर्हति-अर्थ में इस सूत्र से 'य' प्रत्यय है। यस्येति च' (७।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। यहां प्राग्-हितीय यत्' प्रत्यय के प्रकरण में 'य' प्रत्यय का विधान स्वर-भेद के लिये किया गया है। 'य' प्रत्यय आधुदात्तश्च' (३।१।३) से आधुदात्त है-सोम्यः ।
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