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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्वयः-छन्दसि विषये तद्वतो मूर्ध्न आसां मतुप् उपधानो मन्त्रः, वयस्यासु इष्टकासु, मतोश्च लुक् । ५६० अर्थ:-छन्दसि विषये मतुबन्ताद् मूर्धन् - शब्दात् प्रातिपदिकाद् आसामिति षष्ठ्यर्थे मतुप् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थम् उपधानो मन्त्रश्चेत्, यद् आसामिति निर्दिष्टं वयस्या इष्टकाश्चेत् ता भवन्ति, मतोश्च लुग् भवति । उदा० - मूर्धन्वान् उपधानो मन्त्र आसाम् इष्टकानाम् ( वयस्यानाम् ) इति - मूर्धन्वत्य: । 'मूर्धन्वतीर्भवन्ति' ( तै०सं० ५ । ३ । ८ । २ ) । वयस्या एव मूर्धन्वत्य इष्टका भवन्ति । आर्यभाषाः अर्थ-(छन्दसि ) वेदविषय में (तद्वान् ) मतुब्-प्रत्ययान्त (मूर्ध्नः) मूर्धन् प्रातिपदिक से (आसाम् ) षष्ठी विभक्ति के अर्थ में (मतुप् ) मतुप् प्रत्यय होता है ( उपधानो मन्त्रः ) जो प्रथमा - समर्थ है यदि वह उपधान (स्थापन ) मन्त्र हो ( वयस्यासु इष्टकासु) जो ‘आसाम्' षष्ठी - अर्थ है यदि वे 'वयस्य' शब्दवाली इष्टका (ईट) हो अर्थात् जिन्हें 'वयस्वान्' उपधान- मन्त्र से स्थापित किया गया हो (च) और (मतोः) मतुप् का (लुक्) लोप होता है। उदा० - मूर्धा शब्द इसमें है यह मूर्धन्वान् । मूर्धन्वान् उपधान- मन्त्र है इनका ये - मूर्धन्वती इष्टका (ईंट) । सिद्धि-मूर्धन्वत्यः । मूर्धन्वान् + सु + मतुप् । मूर्धन्० + मत् । मूर्धन्वत् + ङीप् । मूर्धन्वती + जस् । मूर्धन्वत्यः । यहां प्रथमा-समर्थ 'मूर्धन्वान्' शब्द से 'आसाम्' (इन वयस्य ईंटों का) अर्थ में इस सूत्र से मतुप् प्रत्यय है । प्रातिपदिक में विद्यमान 'मतुप्' प्रत्यय का लुक् हो जाता है। स्त्रीत्व - विवक्षा में 'उगितश्च' (४ | १ | ६ ) से 'ङीप्' प्रत्यय होता है। विशेषः (१) यहां 'वयस्यासु' पद का यह अभिप्राय है कि जिस उपधान-मन्त्र में 'वयस्' और 'मूर्धन्' दोनों शब्द विद्यमान हैं उसी मन्त्र से इष्टका उपधान में 'मूर्धन्' शब्द से मतुप् प्रत्यय होता है, जिस मन्त्र में केवल 'मूर्धन्' शब्द है वहां यह 'मतुप्' प्रत्यय नहीं होता है। जैसे- 'मूर्धा वय: प्रजापतिश्छन्द:' (यजु० १४1९ ) । (२) यहां 'मूर्धन्वत:' ऐसा पाठ न करके 'मूर्ध्नः' ऐसा पाठ भावी मतुप्-लुक् को चित्त में रखकर किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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