SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 596
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५६ चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः अर्थ:-छन्दसि विषये प्रथमासमर्थाद् अश्विमानिति मतुबन्तात् प्रातिपदिकाद् आसामिति षष्ठ्यर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थम् उपधानो मन्त्रश्चेत्, यद् आसामिति षष्ठीनिर्दिष्टम् इष्टकाश्चेत् ता भवन्ति, मतोश्च लुग् भवति। उदा०-अश्विशब्दोऽस्मिन्नस्तीति-अश्विमान् । अश्विमान् उपधानो मन्त्र आसाम् इष्टकानामिति-आश्विन्य इष्टका: । 'आश्विनीरुपदधाति (शब्रा० ८।२।१।१)। आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में, प्रथमा-समर्थ (अश्विमान्) अश्विमान् इस (तद्वान्) मतुबन्त प्रातिपदिक से (आसाम्) इनका अर्थ में (अण्) अण् प्रत्यय होता है (उपधानो मन्त्र:) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह उपधान (स्थापन) मन्त्र हो (इष्टकासु) जो आसाम्' यह षष्ठ्यर्थ है यदि वे इष्टका (ईंट) हों (च) और (मतो:) मतुप् प्रत्यय का (लुक्) लोप होता है। उदा०-अश्वी शब्द इसमें है यह-अश्विमान् मन्त्र। अश्विमान् उपधान-मन्त्र है इनका ये-आश्विनी इष्टका (ईट)। आश्विनीरुपदधाति' (शब्रा० ८।२।१।१)। सिद्धि-आश्विनी। अश्विन्+मतुप्+अण्। आश्विन्+o+अ। आश्विन+सु । आश्विन+डीप् । आश्विनी+सु। आश्विनी। यहां प्रथमा-समर्थ, मतुबन्त अश्विमान्' शब्द से इन ईंटों का' अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। अण्' प्रत्यय करने पर मतुप्' प्रत्यय का लुक् हो जाता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। इनण्यनपत्ये (६।४।१६४) से प्रकृतिभाव होता है अर्थात् 'नस्तद्धिते' (६।४।१४४) से टि-भाग का लोप नहीं होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'टिड्ढाणञ्०' (४।१।१५) से डीप् प्रत्यय होता है। विशेष: 'अश्विमान्' शब्दवाले मन्त्र से यज्ञकुण्ड निर्माण में जिन इष्टकाओं का उपधान (स्थापन) किया जाता है उन इष्टकाओं को 'आश्विनी' इष्टका कहते हैं। यज्ञ-कुण्ड निर्माण का विशेष विधान शुल्व-सूत्रों में किया गया है, वहां देख लेवें। मतुप् __ (३) वयस्यासु मूर्नो मतुप्।१२७। प०वि०-वयस्यासु ७ ।३ मूर्ध्न: ५।१ मतुप् १।१। अनु०-छन्दसि, तद्वान्, उपधान:, मन्त्रः, इष्टकासु, लुक्, च, मतोरिति चानुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy