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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम
५५० घ:+छ:
(८) घच्छौ च।११७। प०वि०-घ-छौ ११ च अव्ययपदम् । स०-घश्च छश्च ती घच्छौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-तत्र, भवे, छन्दसि, अग्राद्, घन् इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि तत्र अग्राद् भवे घच्छौ घन् च ।
अर्थ:-छन्दसि विषये तत्र इति सप्तमीसमर्थाद् अग्र-शब्दात् प्रातिपदिकाद् भव इत्यस्मिन्नर्थे घच्छौ घन् च प्रत्यया भवन्ति। चकारो घन्-प्रत्ययस्यानुकर्षणार्थः।
उदा०- (घ:) अग्रे भवम्-अग्रियम्। (छ:) अग्रे भवम्-अग्रीयम्। (घन्) अग्रे भवम्-अग्रियम्, स्वरे विशेषः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तत्र) सप्तमी-समर्थ (अग्रात्) अग्र प्रातिपदिक से (भवे) होनेवाला विद्यमान अर्थ में (घच्छौ) घ, छ (च) और (घन्) घन् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-(घ) अग्र-भाग में होनेवाला (विद्यमान)-अग्रिय। (छ) अग्रीय। (घन्) अग्रिय। स्वर में भेद है।
सिद्धि-(१) अग्रियः । अग्र+डि+घ । अग्र+इय। अग्रिय+सु। अग्रियः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'अग्र' शब्द से भव अर्थ में इस सूत्र से 'घ' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से घ्' के स्थान में 'इय्' आदेश होता है। 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। 'आधुदात्तश्च' (३।१।३) से प्रत्यय के आधुदात्त होने से पद का अन्तोदात्त स्वर होता है-अग्रियम्।
(२) अग्रीयः। यहां 'अग्र' शब्द से छ' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।११२) से 'छ' के स्थान में 'ईय' आदेश होता है।
(३) अग्रियः। यहां 'अग्र' शब्द से घन्' प्रत्यय है। पूर्ववत् 'घ' के स्थान में 'इय्' आदेश होता है और नित्यादिनित्यम्' (६।१।९४) से आधुदात्त स्वर होता है-अम्रियः । घ:
(६) समुद्राभाद् घः।११८ । प०वि०-समुद्र-अभ्रात् ५।१ घ: १।१।
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