________________
५४६
चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः उदा०-तुग्रे भव:-तुग्रिय: । त्वमग्ने वृषभस्तुग्रियाणाम्। अन्न-आकाशयज्ञ-वरिष्ठेषु तुग्रशब्दो वर्तते।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तत्र) सप्तमी-समर्थ (तुग्रात्) तुग्र प्रातिपदिक से (भवे) होनेवाला अर्थ में (घन्) घन् प्रत्यय होता है।
उदा०-तुग्रे भव:-तुग्रिय: । तुग्र=अन्न, आकाश, यज्ञ, वरिष्ठ में होनेवाला-तुग्रिय। त्वमग्ने वृषभस्तुग्रियाणाम्।
सिद्धि-तुग्रियः । तुग्र+डि+घन् । तु+इय। तुग्रिय+सु। तुग्रियः ।
यहां सप्तमी-समर्थ तुग्र' शब्द से भव-अर्थ में इस सूत्र से 'घन्' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से 'घ्' के स्थान में 'इय्' आदेश होता है। 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। यथाविहितम् (यत्)
(७) अग्राद् यत्।११६ । प०वि०-अग्रात् ५।१ यत् १।१ । अनु०-तत्र, भवे, छन्दसि इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि तत्र अग्राद् भवे यत्।
अर्थ:-छन्दसि विषये तत्र इति सप्तमीसमर्थाद् अग्र-शब्दात् प्रातिपदिकाद् भव इत्यस्मिन्नर्थे यत् प्रत्ययो भवति।
उदा०-अग्रे भवम्-अग्र्यम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तत्र) सप्तमी-समर्थ (अग्रात्) अग्र प्रातिपदिक से (भवे) होनेवाला विद्यमान अर्थ में (यत्) यत् प्रत्यय होता है।
उदा०-अग्रे=अग्रभाग में होनेवाला (विद्यमान)-अग्र्य। सिद्धि-अश्यम् । अग्र+डि+यत् । अग्र+य। अग्रय+सु । अग्रयम्।
यहां सप्तमी-समर्थ 'अग्रे' शब्द से भव-अर्थ में इस सूत्र से यत्' प्रत्यय है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
विशेष: 'अग्र' शब्द से प्रागघिताद् यत् (४।४।७५) से यथाविहित प्राग्-हितीय यत्' प्रत्यय सिद्ध था पुन: यहां यत्' प्रत्यय का विधान इसलिये किया गया है कि 'घच्छौ च' (४।४।११७) से विधीयमान 'घ' और 'छ' प्रत्यय यत्' प्रत्यय में बाधक न हों।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org