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चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५४५ आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तत्र) सप्तमी-समर्थ प्रातिपदिक से (भवे) होनेवाला अर्थ में (यत्) यथाविहित यत् प्रत्यय होता है।
उदा०-मेधा में होनेवाला-मेध्य । विद्युत् में होनेवाला-विद्युत्य। 'नमो मेध्याय च विद्युत्याय च नमः' (तै०सं० ४।५।७।२)।
सिद्धि-मध्य: । मेधा+डि+यत् । मेध्+य। मेध्य+सु। मेध्यः ।
यहां वेदविषय में सप्तमी-समर्थ मेधा' शब्द से भव-अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग-हितीय 'यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के आकार का लोप होता है। ऐसे ही-विद्युत्यः।
विशेष: छन्दसि पद का अधिकार पाद-समाप्ति पर्यन्त है और 'भवे' पद का अधिकार समुद्राभ्राद् घः' (४।४।११८) तक है। ड्यण
(२) पाथोनदीभ्यां ड्यण।१११। प०वि०-पाथ:-नदीभ्याम् ५ ।२ ड्यण् १।१ ।
स०-पाथश्च नदी च ते पाथोनद्यौ, ताभ्याम्-पाथोनदीभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-तत्र, भवे, छन्दसि इति चानुवर्तते।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीसमर्थाभ्यां पाथोनदीभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां भव । इत्यस्मिन्नर्थे ड्यण् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(पाथ:) पाथसि भव:-पाथ्यः। पाथ्यो वृषा (ऋ० ६।१६ ।१५)। (नदी) नद्यां भवो नाद्य: । 'चनो दधीत नाद्यो गिरो में (ऋ० २।३५ १)। पाथ: अन्तरिक्षम् ।
आर्यभाषा अर्थ-(तत्र) सप्तमी-समर्थ (पाथोनदीभ्याम्) पाथस्, नदी प्रातिपदिकों से (भवे) होनेवाला अर्थ में (ड्यण) ज्यण् प्रत्यय होता है।
उदा०-पाथ (अन्तरिक्ष) में होनेवाला पाथ्य। 'पाथ्यो वृषा' (ऋ० ६।१६ ।१५) । (नदी) नदी दरिया में होनेवाला-नाद्य। 'च नो दधीत नाद्यो गिरो में (२।३५।१)।
सिद्धि-पाथ्य: । पाथस्+डि+ड्यण् । पाथ्+य। पाथ्य+सु। पाथ्यः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'पाथस्' प्रातिपदिक से भव अर्थ में इस सूत्र से 'ड्यण' प्रत्यय है। प्रत्यय के 'डित्' होने से वा०-'डित्यभस्यापि टेर्लोप:' (६।४।१४३) से पाथस् के टि-भाग (अस्) का लोप होता है। ऐसे ही-नाद्यः ।
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