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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
सिद्धि-जन्या । जनी+अम्+यत्। जन्+य। जन्य+टाप् । जन्या+सु । जन्या। यहां द्वितीया-समर्थ 'जनी' शब्द से वहति अर्थ में और संज्ञा अर्थ की प्रतीति में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्-हितीय 'यत्' प्रत्यय है । 'यस्येति च' (७ । ४ । १४८) से अंग के ईकार का लोप होता है। स्त्रीत्व - विवक्षा में 'अजाद्यतष्टाप्' ( ४ 1१1४ ) से 'टाप्' प्रत्यय होता है।
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विध्यति - अर्थप्रत्ययविधिः
यथाविहितम् (यत्) -
(१) विध्यत्यधनुषा । ८३ । प०वि० - विध्यति क्रियापदम्, अधनुषा ३ ।१ ।
सo - न धनुरिति अधनु:, तेन - अधनुषा ( नञ्तत्पुरुषः ) । अनु० - तत् यत् इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-तत् प्रातिपदिकाद् विध्यति यत्, अधनुषा । अर्थः-तद् इति द्वितीयासमर्थात् प्रातिपदिकाद् विध्यतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं यत् प्रत्ययो भवति यद् विध्यति तद् धनुष्करणं न भवति । उदा० - पादौ विध्यन्ति - पाद्याः शर्कराः । ऊरू विध्यन्ति - ऊरव्याः कण्टका: ।
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आर्यभाषाः अर्थ - (तत्) द्वितीया-समर्थ प्रातिपदिक से (विध्यति ) बींधता है अर्थ में (यत्) यथाविहित यत् प्रत्यय होता है ( अधनुषा) जो बींधता है वह यदि धनुष करण = साधन न हो ।
उदा० - पादों (पांव) को जो बीधती हैं वे -पाद्य शर्करा ( कांकर) । ऊरु (जंघा) को जो बींधते हैं वे ऊरव्य कण्टक (कांटे ) ।
सिद्धि - (१) पाद्या: । पाद+औ+यत् । पाद्+य । पाद्य+टाप् । पाद्या+जस्। पाद्याः । यहां द्वितीया-समर्थ 'पाद' शब्द से विध्यति - अर्थ में तथा धनुष करण को छोड़कर इस सूत्र से यथाविहित प्राग्-हितीय 'यत्' प्रत्यय है । 'यस्येति च' (६ । ४ ।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। स्त्रीत्व - विवक्षा में 'अजाद्यतष्टाप्' (४|१|४) से 'टाप्' प्रत्यय होता है।
(२) ऊरव्या: । यहां 'ऊरू' शब्द से पूर्ववत् 'यत्' प्रत्यय और 'ओर्गुण: ' (६।४।१४६) से अंग को गुण और 'वान्तो यि प्रत्यये (६।१।७८) से वान्त (अव् ) आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
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