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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां द्वितीय-समर्थ 'रथ' शब्द से वहति अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग-हितीय यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-युग्य:, प्रासङ्ग्यः । यत्+ढक्
(२) धुरो यड्ढकौ ।७७ । प०वि०-धुर: ५।१ यत्-ढकौ १।२। स०-यच्च ढक् च तौ यड्ढकौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-तद्, वहति इति चानुवर्तते । अन्वय:-तद् धुरो वहति यड्ढकौ।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थाद् धुर्-शब्दात् प्रातिपदिकाद् वहतीत्यस्मिन्नर्थे यड्ढको प्रत्ययौ भवतः।
उदा०- (यत्) धुरं वहति-धुर्य: । (ढक्) धुरं वहति-धौरेयः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (धुरः) धुर् प्रातिपदिक से (वहति) वहन करता है अर्थ में (यड्ढकौ) यत् और ढक् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-(यत्) धुर् (जुआ) को जो वहन करता है (जुड़ता है) वह-धुर्य। (ढक्) धौरेय । बोझ ढोनेवाला बैल।
सिद्धि-(१) धुर्यः । धुर्+अम्+यत् । धुर्+य। धुर्य+सु। धुर्यः ।। यहां द्वितीया-समर्थ 'धुर्' शब्द से वहति अर्थ में इस सूत्र से यत्' प्रत्यय है। (२) धौरेयः । धुर्+ढक् । धु+एय। धौर्+एय। धौरेय+सु । धौरेयः ।
यहां पूर्वोक्त द्वितीया-समर्थ 'धुर' शब्द से इस सूत्र से ढक्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से द' के स्थान में 'एय्’ आदेश और किति च' (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि होती है। ख:
(३) खः सर्वधुरात्।७८ | प०वि०-ख: ५।१ सर्वधुरात् ५।१।
स०-सर्वा चासौ धूरिति इति सर्वधुरम्, तस्मात्-सर्वधुरात् (कर्मधारयः)। अत्र धुर्-शब्दात् 'ऋक्पूरप्धूपथामनक्षे' (५ ।४ १७४) इति समासान्तोऽकारप्रत्ययः ।
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