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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा० - शुल्कशाला (चुंगी) में लगाया हुआ - शौल्कशालिक । आकर (खजाना) में लगाया हुआ-आकरिक। आपण (दुकान) में लगाया हुआ - आपणिक । गुल्म (जंगल) में लगाया हुआ - - गौल्मिक । द्वार पर लगाया हुआ-दौवारिक ।
सिद्धि-(१) शौल्कशालिकः । शुल्कशाला + डि+ठक् । शौल्कशाल्+इक । शौल्कशालिक+सु। शौल्कशालिकः ।
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यहां सप्तमी-समर्थ 'शुल्कशाला' शब्द से नियुक्त अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय 'ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के आकार का लोप होता है । ऐसे ही आकरिकः आदि ।
(२) दौवारिक: । यहां द्वार' शब्द से पूर्ववत् 'ठक्' प्रत्यय और द्वारादीनां च' (७।३।४) से अंग को आदिवृद्धि का प्रतिषेध तथा ऐच् आगम होता है। यथाविहितम् (ठक) -
प०वि०-अगारान्तात् ५ ।१ ठन् १ । १ ।
स०-अगारम् अन्ते यस्य तद् अगारान्ताम्, तस्मात्-अगारान्तात् ( बहुव्रीहि: ) ।
अनु०-तत्र, नियुक्त इति चानुवर्तते । अन्वयः-तत्र अगारान्ताद् नियुक्तष्ठन् ।
अर्थः- तत्र इति सप्तमीसमर्थाद् अगारान्तात् प्रातिपदिकाद् नियुक्त इत्यस्मिन्नर्थे ठन् प्रत्ययो भवति ।
उदा० देवागारे नियुक्त:- देवागारिकः । कोष्ठागारिकः । भाण्डागारिकः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (तत्र) सप्तमी - समर्थ ( अगारान्तात्) अगार जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक से ( नियुक्त:) लगाया हुआ अर्थ में (ठन् ) ठन् प्रत्यय होता है। उदा०-देवागार=देवालय में नियुक्त किया हुआ - देवागारिक (पुरोहित) । कोष्ठागार ( मालगोदाम ) में नियुक्त किया हुआ कोष्ठागारिक । भाण्डागार (मालगोदाम) में नियुक्त किया हुआ - भाण्डागारिक (भण्डारी) ।
सिद्धि- देवागारिकः । देवागार + ङि+ठन् । देवागार् + इक । देवागारिक+सु । देवागारिकः ।
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(२) अगारान्ताट्ठन् । ७० ।
यहां सप्तमी-समर्थ अगारान्त देवागार' शब्द से नियुक्त अर्थ में इस सूत्र से 'ठन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही- कोष्ठागारिकः, भाण्डागारिकः ।
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