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________________ ५०७ ण: चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः {शीलम् स्वभावः} (१२) छत्रादिभ्यो णः ।६२। प०वि०-छत्रादिभ्य: ५।३ ण: १।१। स०-छत्रम् आदिर्येषां ते छत्रादय:, तेभ्य:-छत्रादिभ्यः (बहुव्रीहि:)। अनु०-तत्, अस्य, शीलम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत् छत्रादिभ्योऽस्य ण: शीलम् । अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थेभ्यश्छत्रादिभ्यः प्रातिपदिकेभ्योऽस्येति षष्ठ्यर्थे ण: प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं शीलं चेत् तद् भवति। उदा०-छत्रमिव शीलमस्य-छात्रः। बुभुक्षा शीलमस्य-बौभुक्ष:, इत्यादिकम्। छत्र। बुभुक्षा। शिक्षा। पुरोह। स्था। चुरा। उपस्थान। ऋषि । कर्मन्। विश्वधा । तपस् । सत्य । अनृत। शिबिका। इति छत्रादयः ।। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ (छत्रादिभ्यः) छत्र-आदि प्रातिपदिकों से (अस्य) इसका अर्थ में (ण:) ण प्रत्यय होता है (शीलम्) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह शील हो। उदा०-छत्र (गुरु) के समान शील है इसका यह-छात्र (शिष्य)। बुभुक्षा-खाने की इच्छा है स्वभाव इसका यह-बौभुक्ष। सिद्धि-छात्रः। छत्र+सु+ण। छात्र+अ। छात्र+सु। छात्रः । यहां प्रथमा-समर्थ छत्र' शब्द से अस्य अर्थ में तथा शील अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-बौभुक्ष: आदि। विशेष: (१) काशिकाकार पं0 जयादित्य ने यहां छात्र' शब्द की व्याख्या में लिखा है- “छादनादावरणाच्छत्रम् गुरुकार्येष्ववहितस्तच्छिद्रावरणप्रवृत्तश्छत्रशील: शिष्यश्छात्र: ।” अर्थात् छत्र' छादना (आवरण) के कारण छत्र कहाता है। गुरुजन के कार्यों में लगा हुआ है एवं उसके छिद्रों (दोष) के आवरण में प्रवृत्त हुआ छत्रशील शिष्य छात्र' कहाता है। (२) महाभाष्यकार पतञ्जलि यहां 'छात्र' शब्द की व्याख्या में लिखते हैं- "किं यस्यच्छत्रधारणं शीलं स छात्र: ? किञ्चात: ? राजपुरुषे प्राप्नोति । एवं तर्युत्तरपदलोपोऽत्र द्रष्टव्यः । छत्रमिव छत्रम् । गुरुश्छत्रम् । गुरुणा शिष्यश्छत्रवच्छाद्य: । शिष्येण च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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