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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ (अस्तिनास्तिदिष्टम्) अस्ति, नास्ति, दिष्ट प्रातिपदिकों से (अस्य) इसकी अर्थ में (ठक्) यथा विहित ठक् प्रत्यय होता है (मति:) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह मति-बुद्धि हो।
उदा०-(अस्ति) परलोक है, ऐसी मति है, इसकी यह-आस्तिक। (नास्ति) परलोक नहीं है, ऐसी मति है इसकी यह-नास्तिक। (दिष्ट) दैव=भाग्य है ऐसी मति है इसकी यह-दैष्टिक। यहां अस्ति, नास्ति निपात हैं, तिङन्त पद नहीं।
सिद्धि-अस्ति+सु+ठक् । आस्त्+इक। आस्तिक+सु। आस्तिकः ।
यहां प्रथमा-समर्थ, 'अस्ति' शब्द से अस्य अर्थ में तथा मति अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-नास्तिकः, दैष्टिकः । यथाविहितम् (ठक्)- {शीलम् स्वभावः}
(११) शीलम्।६१। वि०-शीलम् १।१। अनु०-तत्, अस्य, ठक् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत् प्रातिपदिकाद् अस्य ठक् शीलम्।
अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं ठक् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं शीलं चेत् तद् भवति । शीलम् स्वभावः ।
उदा०-अपूपभक्षणं शीलमस्य-आपूपिक: । शाष्कुलिकः । मौदकिक: । भक्षणक्रिया तद्विशेषणं च शीलं तद्धितवृत्तावन्तर्भवति।
आर्यभाषा: अर्थ- (तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्य) इसका अर्थ में (ठक्) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है (शीलम्) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह शील= स्वभाव हो।
उदा०-अपूपभक्षण (पूड़े खाना) शील है इसका यह-आपूपिक। शष्कुलि-भक्षण (पूरी खाना) शील है इसका यह-शाष्कुलिक । मोदक-भक्षण (लड्डू खाना) शील है इसका यह-मौदकिक । भक्षण-क्रिया और उसके विशेषण शील' का तद्धितवृत्ति में अन्तर्भाव हो जाता है।
सिद्धि-आपूपिकः । अपूप+सु+ठक् । आपूप+इक। आपूपिक+सु। आपूपिकः ।
यहां प्रथमा-समर्थ 'अपूप' शब्द से अस्य अर्थ में तथा शील अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-शाष्कुलिकः, मौदकिकः ।
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