________________
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
गुरुश्छत्रवत् परिपाल्यः।” अर्थात् क्या छत्र धारण करना जिसका शील (स्वभाव) है वह-छात्र कहाता है ? इससे क्या दोष आता है ? राजपुरुष अर्थ में यह प्रत्यय प्राप्त है। अच्छा तो यहां उत्तरपद का लोप समझना चाहिये । छत्र के समान जो है वह छत्र । गुरु छत्र= छत्र के समान होता है। गुरु अपने शिष्य को छत्र के समान आच्छादित रखे और शिष्य गुरु का छत्र के समान परिपालन करे ।
यहां महाभाष्यकार पतञ्जलि का उक्त अर्थ श्रेष्ठ होने से ग्राह्य है।
५०८
यथाविहितम् (ठक) -
(१३) कर्माध्ययने वृत्तम् । ६३ । प०वि०-कर्म १।१ अध्ययने ७ ।१ वृत्तम् १।१। अनु० - तत् अस्य, ठक् इति चानुवर्तते । अन्वयः-तत् प्रातिपदिकाद् अस्य ठक् अध्ययने वृत्तं कर्म । अर्थ:- तद् इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं ठक् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थम् अध्ययने वृत्तम् अन्यत् कर्म चेत् तद् भवति ।
उदा०-एकमन्यद् अध्ययने वृत्तं कर्मास्य - ऐकान्यिकः । द्वैयन्यिकः । त्रैयन्यिकः ।
आर्यभाषाः अर्थ - (तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्य) इसका अर्थ में ( ठक्) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है ( अध्ययने वृत्तं कर्म ) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह वेदादि के अध्ययन में वृत्त = उत्पन्न हुआ अन्य कर्म (क्रिया) हो ।
उदा० - जिस छात्र का परीक्षाकाल में पाठ करते समय एकान्य-अन्य= एक अपपाठ रूप स्खलन (गलती) हो गया है वह ऐकान्यिक। यहां अन्य शब्द अनीप्सित अर्थ का द्योतक है। द्वयन्य-दो अन्य = अपपाठ रूप स्खलन हो गये हैं इसके यह-द्वैयन्यिक । त्र्यन्य-अन्य= अपपाठ रूप स्खलन हो गये हैं इसके यह त्रैयन्यिक ।
सिद्धि-(१) ऐकान्यिकः । एकान्य+सु+ठक् । ऐकान्य् + इक । ऐकान्यिक+सु । ऐकान्यिकः ।
यहां प्रथमा-समर्थ एकान्य' शब्द से अस्य अर्थ में अध्ययन में उत्पन्न अपपाठ रूप कर्म अभिधेय में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय 'ठक्' प्रत्यय है । पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है ।
(२) द्वैयन्यिकः | यहां 'न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ तु ताभ्यामैच्' (७/३/३) से 'ऐच्' आगम होता है, आदिवृद्धि नहीं होती है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही - त्रैयन्यिकः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org