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चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५०३ सिद्धि-(१) माडुडुक: । मड्डुक+सु+अण् । माडुडुक्+अ। माड्डुक+सु । माड्डुकः ।
यहां प्रथमा-समर्थ, शिल्पवाची ‘मड्डुक' शब्द अस्य (इसका) अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
(२) माड्डुकिकः । यहां पूर्वोक्त मड्डुक' शब्द से विकल्प पक्ष में यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-झार्झरः, झाझरिकः । यथाविहितम् (ठक)- {प्रहरणम्-शस्त्रम्}
.. (७) प्रहरणम्।५७। वि०-प्रहरणम् १।१। अनु०-तत्, अस्य, ठक् इति चानुवर्तते । अन्वय:-तत् प्रातिपदिकाद् अस्य ठक् प्रहरणम् ।
अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे यथविहितं ठक् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं प्रहरणं चेत् तद् भवति, प्रह्रियतेऽनेनेति प्रहरणम् आयुधमुच्यते।
उदा०-असि: प्रहरणमस्य-आसिक: । प्रासिकः । चाक्रिक: । धानुष्कः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्य) इसका अर्थ में (ठक) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है (प्रहरणम्) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह प्रहरण= शस्त्र हो।
उदा०-असि (तलवार) है प्रहरण इसका यह-आसिक। प्रास (भाला) है प्रहरण इसका यह-प्रासिक। चक्र है प्रहरण इसका यह-चाक्रिक। धनुष् है प्रहरण इसका यहधानुष्क।
सिद्धि-(१) आसिकः । असि+सु+ठक् । आस्+इक। आसिक+सु। आसिकः ।
यहां प्रथमा-समर्थ, प्रहरणवाची 'असि' शब्द से अस्य (उसका) अर्थ में यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-प्रासिकः, चाक्रिकः ।
(२) धानुष्कः । धनुर्+सु+ठक् । धानु:+क। धानुष्+क। धानुष्कः ।
यहां प्रथमा-समर्थ, प्रहरण विशेषवाची 'धनुः' शब्द से अस्य (इसका) अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। इसुसुक्तान्तात् कः' (७।३ १५१) से ' के स्थान में 'क्' आदेश होता है। इण: ष:' (८।३।३९) से विसर्जनीय को षत्व होता है।
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