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चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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आर्यभाषाः अर्थ- (तत्) प्रथमा - समर्थ प्रातिपदिक से (अस्य) इसका अर्थ में ( ठक् ) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है ( पण्यम् ) जो प्रथमा - समर्थ है यदि पण्य= कोई व्यवहार्य द्रव्य हो ।
उदा० - अपूप (मालपूये) हैं पण्य इसके यह- आपूपिक । शष्कुलि (पूरी ) हैं पण्य इसकी यह - शाष्कुलिक । मोदक (लड्डू) हैं पण्य इसके यह मौदकिक ।
सिद्धि-आपूपिकः। अपूप+जस्+ठक् । आपूप्+इक। आपूपिक+सु । आपूपिकः । यहां प्रथमा-समर्थ (पण्यवाची) 'अपूप' शब्द से अस्य ( इसका ) अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय 'ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
ठञ्
{पण्यम्}
(२) लवणाट्ठञ् । ५२ ।
प०वि०-लवणात् ५।१ ठञ् १ ।१ । अनु०-तद्, अस्य, पण्यम् इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-तद् लवणाद् अस्य ठञ् पण्यम् ।
अर्थः-तद् इति प्रथमासमर्थाल्लवण-शब्दात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे ठञ् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं पण्यं चेत् तद् भवति I
उदा०-लवणं पण्यमस्य- लावणिकः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (तत्) प्रथमा-समर्थ (लवणात्) लवण प्रातिपदिक से (अस्य) इसका अर्थ में (ठञ्) ठञ् प्रत्यय होता है (पण्यम्) जो प्रथमा - समर्थ है यदि वह पण्य हो । उदा० - लवण (नमक) है पण्य इसका यह - लावणिक (नमक का व्यापारी) । सिद्धि - लावणिकः । लवण+सु+ठञ् । लावण्+इक। लावणिक+सु । लावणिकः । यहां प्रथमा-समर्थ, पण्यवाची 'लवण' शब्द से अस्य (इसका) अर्थ में इस सूत्र से 'ठञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है । प्रत्यय के ञित् होने से 'नित्यादिर्नित्यम्' ( ६ । १।९४ ) से आद्युदात्त स्वर होता है - लावणिकः । यह 'ठक्' प्रत्यय का अपवाद है।
ष्ठन्
{पण्यम् }
(३) किशरादिभ्यष्ठन् । ५३ । प०वि०-किशर-आदिभ्यः ५ । ३ ष्ठन् १ । १ ।
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