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________________ ४६८ __ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् इत्युच्यते” (पदमञ्जरी) । ननु अवक्रयोऽपि धर्नामेव ? नैतदस्ति-लोकपीडया धर्मातिक्रमेणापि अवक्रयो भवति । उदा०-शुल्कशालाया अवक्रय:-शौल्कशालिकः। आकरिकः । आपरिक: । गौल्मिकः। आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ प्रातिपदिक से (अवक्रयः) कर-प्रदान अर्थ में (ठक्) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है। वाणिज्य के लिये तैल, धान्य आदि द्रव्य देशान्तर में ले जानेवाले व्यापारी को इस शुल्क-स्थान (चुंगी) में प्रति-मण इतना कर (टैक्स) देना है, जो कि उस देश के राजा द्वारा निश्चित किया गया है वह राशि अवक्रय (पिण्डक) कहाती है। यहां अपना द्रव्य देकर ही अपना द्रव्य स्वीकार्य होता है, इसलिये यह अवक्रय' कहाता है। अवक्रय भी धर्म्य ही है ? नहीं लोक-पीडा की भावना से एवं धर्म के अतिक्रमण से भी 'अवक्रय' होता है अत: अवक्रय और धर्म्य अर्थ पृथक्-पृथक् हैं। उदा०-शुल्कशाला का जो अवक्रय है वह-शौल्कशालिक । आकर (खज़ाना) को जो अवक्रय है वह-आकरिक। आपण (दुकान) का जो अवक्रय है वह-आपणिक। गुल्म (जंगल) का जो अवक्रय है वह-गौल्मिक। सिद्धि-शौल्कशालिकः । यहां षष्ठी-समर्थ 'शुल्कशाला' शब्द से अवक्रय अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-आकरिक: आदि। अस्य (षष्ठी) अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितम् (ठक)- {पण्यम् __(१) तदस्य पण्यम्।५१। प०वि०-तत् १।१ अस्य ६।१ पण्यम् १।१ । अनु०-ठक् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-तत् प्रातिपदिकात् अस्य ठक् पण्यम् । अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं ठक् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं पण्यं चेत् तद् भवति । पणितुमर्हम्-पण्यम्। उदा०-अपूपा: पण्यमस्य-आपूपिक: । शाष्कुलिकः । मौदकिक: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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