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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(२) प्रातिपथिक: । यहां पूर्ववत् 'प्रतिपथ' शब्द से 'ठक्' प्रत्यय है । 'किति च' (७ 1२1११८) से अंग को आदिवृद्धि होती है। प्रत्यय के 'कित्' होने से 'कित: ' (६।१।१६२) से अन्तोदात्त स्वर होता है- प्रातिपथिकः ।
समवैति अर्थप्रत्ययविधिः
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यथाविहितम् (ठक) -
(१) समवायान् समवैति । ४३ ।
प०वि० - समवायान् २ । ३ ( पञ्चम्यर्थे ) समवैति क्रियापदम् । अनु०-तत्, ठक् इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-तत् समवायेभ्यः समवैति ठक् ।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थेभ्य: समवायवाचिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः समवैतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं ठक् प्रत्ययो भवति ।
'समवायान्' इति बहुवचननिर्देशात् तद्वाचिनः शब्दा गृह्यन्ते । समवायः=समूहः। समवैति = आगत्य समवायस्यैकदेशी भवतीत्यर्थः ।
उदा०-समवायं समवैति - सामवायिकः । सामाजिक: । सामूहिकः । सान्निवेशिकः ।
आर्यभाषाः अर्थ - (तत्) द्वितीया - समर्थ (समवायान् ) समवाय = समूहवाची प्रातिपदिकों से (समवैति) आकर समवाय का एक अंग बनता है अर्थ में (ठक्) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-जो समवाय का आकर एकदेश (एक भाग) बनता है वह सामवायिक । जो समाज=मानव संघ का आकर एक देश बनता है वह सामाजिक । जो समूह का आकर एक देश बनता है वह सामूहिक । जो सन्निवेश = समुदाय का आकर एकदेश बनता है वह - सान्निवेशिक ।
सिद्धि-सामवायिकः । समवाय +अम्+ठक् । सामावाय् +इक | सामवायिक+सु । सामवायिकः ।
यहां द्वितीया-समर्थ 'समवाय' शब्द से समवैति अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय 'ठक्' प्रत्यय है । पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता हैं। ऐसे ही - सामाजिक: आदि ।
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