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चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः
१३ (२) स्वसा। स्वसृ+सु । स्वस् अनङ्+सु । स्वसान्+सु । स्वसा।
यहां इस सूत्र से स्त्री-प्रत्यय का प्रतिषेध है। 'अनङ् सौं' (७।१।९३) से अनङ् आदेश 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' (६ ।४।८) से दीर्घ और 'नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२।७) से न्' का लोप होता है। डीप्-प्रतिषेधः
(७) मनः।११। प०वि०-मन: ५।१। अनु०-डीप्, न इति चानुवर्तते। अन्वय:-मन: स्त्रियां डीप् न। अर्थ:-मन्-अन्तात् प्रातिपदिकात् स्त्रियां डीप् प्रत्ययो न भवति ।
उदा०-सा दामा। ते दामानौ । ता दामान: । सा पामा । ते पामानौ । ता: पामानः।
आर्यभाषा: अर्थ-(मन:) मन् जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक से (स्त्रियाम्) स्त्रीलिङ्ग में (डीप) डीप् प्रत्यय (न) नहीं होता है।
उदा०-सा दामा। वह दानशील स्त्री है। ते दामानौ । वे दोनों दानशील स्त्रियां हैं। ता दामानः । वे सब दानशील स्त्रियां हैं। सा पामा। वह सोमपान करनेवाली स्त्री है। ते पामानौ । वे दोनों सोमपान करनेवाली स्त्रियां हैं। ता: पामान: । वे सब सोमपान करनेवाली स्त्रियां हैं।
सिद्धि-(१) दामा। दा+मनिन् । दा+मन् । दामन्+सु। दामान्+सु। दामान्+0 /
दामा।
यहां 'डुदाञ् दाने (जु०उ०) धातु से 'आतो मनिन्क्वनिप्वनिपश्च' (३।२।७४) से मनिन् प्रत्यय है। सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' (६ ।४।८) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ होता है। ऋन्नेभ्यो डीप्' (४।१।५) से प्राप्त ‘डीप्' (स्त्री-प्रत्यय) इस सूत्र से नहीं होता है।
(२) पामा । 'पा पाने' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् मनिन् प्रत्यय और डीप् प्रत्यय का प्रतिषेध होता है। डीप-प्रतिषेधः
(८) अनो बहुव्रीहेः।१२। प०वि०-अन: ५।१ बहुव्रीहे: ५।१। अनु०-डीप्, न इति चानुवर्तते।
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