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चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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अन्वयः - तेन प्रातिपदिकाद् दीव्यति, खनति, जयति, जितं ठक् । अर्थ: तेन इति तृतीयासमर्थात् प्रातिपदिकाद् दीव्यति, खनति, जयति, जितमित्येतेष्वर्थेषु ठक् प्रत्ययो भवति ।
उदा०- ( दीव्यति ) अक्षैर्दीव्यति - आक्षिकः । शलाकाभिर्दीव्यतिशालांकिकः । ( खनति) अभ्रया खनति - आभ्रिकः । कुद्दालेन खनतिकौद्दालिकः । ( जयति ) अक्षैर्जयति - आक्षिकः । शलाकाभिर्जयतिशालाकिकः । (जितम् ) अक्षैर्जितम् - आक्षिकम् । शलाकाभिर्जितम्शालाकिकम् ।
आर्यभाषाः अर्थ - (तेन) तृतीया - समर्थ प्रातिपदिक से ( दीव्यति०) दीव्यति, खनति, जयति, जितम् इन अर्थों में ( ठक् ) ठक् प्रत्यय होता है ।
उदा०- - ( दीव्यति) अक्ष= पासों से जो खेलता है वह आक्षिक । शलाकाओं से जो खेलता है वह शालाकिक । ( खनति) अभि ( कुदाली) से जो खोदता है वह - आश्रिक । कुद्दाल (कस्सी) से जो खोदता है वह - कौद्दालिक । (जयति) अक्ष=पासों से जो जीतता है वह आक्षिक । शलाकाओं से जो जीतता है वह शालाकिक । (जितम्) अक्ष-पासों से जीता हुआ- आक्षिक (धन) । शलाकाओं से जीता हुआ - शालाकिक (धन) ।
सिद्धि-‘आक्षिक:’ आदि पदों की सिद्धि पूर्ववत् (४/१/१) है।
विशेष: द्यूतक्रीडा में अक्षाकार (गोल) और शलाकाकार (लम्बे ) दो प्रकार के पासों का प्रयोग किया जाता है। जो अक्षों से खेलने / जीतने में चतुर होता है उसे आक्षिक और जो शलाकाओं से खेलने / जीतने में चतुर होता है उस खिलाड़ी को शालाकिक कहते हैं। अक्षराज, कृत, त्रेता, द्वापर, कलि नामक ये पांच पांसे / शलाकायें होती हैं।
संस्कृतार्थप्रत्ययविधिः
यथाविहितम् (ठक) -
(१) संस्कृतम् । ३ ।
वि०-संस्कृतम् १।१। अनु०-तेन, ठक् इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-तेन प्रातिपदिकात् संस्कृतं ठक् । अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् प्रातिपदिकात् संस्कृतमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं ठक् प्रत्ययो भवति । सत उत्कर्षाधानं संस्कार इत्युच्यते ।
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