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________________ ४५७ चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः अनु०-तस्य, विकार इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य कंसीयपरशव्याभ्यां विकारो यत्रो लुक् च । अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाभ्यां कंसीयपरशव्याभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां विकार इत्यस्मिन्नर्थे यथासंख्यं यजञौ प्रत्ययौ भवतः, तत्सन्नियोगेन च तयोर्वर्तमानस्य प्रत्ययस्य लुगपि भवति । उदा०- (कंसीय:) कंसीयस्य विकार:-कांस्यम्। (परशव्य:) परशव्यस्य विकार:-पारशवम् । आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (कंसीयपरशव्ययो:) कंसीय और परशव्य प्रातिपदिकों से (विकार:) विकार अर्थ में यथासंख्य (यजौ) यञ् और अञ् प्रत्यय होते हैं और उनके सन्नियोग से कंसीय और परशव्य शब्दों में विद्यमान प्रत्यय (छ, यत्) का (लुक्) लुक् (च) भी होता है। उदा०-कंसीय (कंस-गिलास के लिये हितकारी धातु) का विकार-कांस्य। (परशव्य) परशव्य (परशु-कुठार के लिये हितकारी धातु) का विकार-पारशव। सिद्धि-(१) कांस्यम् । कंस+डे+छ। कंस्+ईय+कंसीय।। कंसीय+डस्+यञ्। कंसीय+य। कंस्+य। कांस्+य। कांस्य+सु। कांस्यम्। यहां प्रथम कंस' शब्द से प्राक्क्रीताच्छ:' (५।११) के अधिकार में तस्मै हितम् (५।१।५) से छ' प्रत्यय होता है। छ-प्रत्ययान्त कंसीय' शब्द से विकार अर्थ में इस सूत्र से यज्' प्रत्यय और उस छ' प्रत्यय का लुक होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। (२) पारशवम् । परशु+डे+यत्। परशो+य। परशव्य ।। परशव्य+डस्+अञ् । पारशो+अ। पारशव्+अ। पारशव+सु। पारशवः । यहां प्रथम परशु' शब्द से 'उगवादिभ्यो यत्' (५।१।२) से हित अर्थ में यत्' प्रत्यय होता है। यत्-प्रत्ययान्त परशव्य' शब्द से विकार अर्थ में इस सूत्र से 'अञ्' प्रत्यय होता है और उस यत्' प्रत्यय का लुक् होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवद्धि तथा 'ओर्गुणः' (६।४।१४६) से अंग को गुण होता है। ।। इति विकारावयवप्रत्ययार्थप्रकरणम् प्राग्दीव्यतीयप्रत्ययार्थप्रकरणं च सम्पूर्णम् ।। इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचने चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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