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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् वा विकार (लकड़ी) दैवदारव कहाता है। उस दैवदारव लकड़ी का अवयव वा विकार (आसन्दिका, पीठ) आदि भी दैवदारव ही कहाता है। यह अवयव के अवयव और विकार के विकार अर्थ में प्रत्यय है।
(२) दाधित्थम् । यहां प्रथम दधित्थ' शब्द से 'अनुदात्तादेश्च' (४।३।१३८) से 'अञ्' प्रत्यय होता है। शेष पूर्ववत् है।
(३) पालाशम् । यहां प्रथम पलाश' शब्द से पलाशादिभ्यो वा' (४।३।१४०) से 'अञ्' प्रत्यय होता है। शेष पूर्ववत् है।
(४) शामीलम् । यहां प्रथम 'शमी' शब्द से 'शम्याष्ट्ल' (४।३।१४२) से 'ट्लज्' प्रत्यय होता है। शेष पूर्ववत् है।
(५) कापोतम् । यहां कपोत' शब्द से 'प्राणिरजतादिभ्योऽज्ञ (४।३।१५४) से 'अञ्' प्रत्यय होता है। शेष पूर्ववत् है।
(६) औष्ट्रकम् । यहां प्रथम उष्ट्र' शब्द से 'उष्ट्राद् वु' (४।३।१५७) से 'वुञ्' प्रत्यय होता है। शेष पूर्ववत् है।
(७) ऐणेयम् । यहां प्रथम 'एणी' शब्द से 'एण्या ढगं (४।३।१५९) से ढञ्' प्रत्यय होता है। शेष पूर्ववत् है।।
(८) कांस्यम् । यहां प्रथम कंसीय' शब्द से कंसीयपरशव्ययोर्यजञौ लुक्' (४।३।१६८) से यञ्' प्रत्यय होता है। शेष पूर्ववत् है।
(९) परशव्यम् । यहां प्रथम 'परशव्य' शब्द से पूर्ववत् 'अञ्' प्रत्यय होता है। तत्पश्चात् इस शब्द से इस सूत्र से 'अञ्' प्रत्यय किया जाता है। क्रीतवत् प्रत्ययविधिः
(२२) क्रीतवत् परिमाणात्।१५४। प०वि०-क्रीतवत् अव्ययपदम्, परिमाणात् ५ ।१ । क्रीते इव क्रीतवात् 'तत्र तस्येव' (५ ।१ ।११६) इति सप्तम्यर्थे वति: प्रत्ययः ।
अनु०-तस्य, विकार इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य परिमाणाद् विकार: क्रीतवत् प्रत्ययाः ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थात् परिमाणवाचिन: प्रातिपदिकाद् विकार इत्यस्मिन्नर्थे क्रीतवत् प्रत्यया भवन्ति। 'प्राग्वतेष्ठञ् (५ ।१।१८) इत्यत: प्रारभ्य क्रीतार्थे ये प्रत्यया: परिमाणवाचिन: शब्दाद् विहितास्ते विकारेऽर्थेऽपि भवन्ति ।
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